Tuesday 5 July 2011



ख़्वाब  का    चेहरा  पीला    पड़ते     देखा   है। 
इक     ताबीर    को    सूली   चढ़ते    देखा  है। 

इक    तस्वीर   जो     आईने     में    देखी   थी,
उसका   इक-इक   नक़्श    बिगड़ते  देखा है। 

सुब्ह  से  लेकर   शाम  तलक  इन  आंखों  ने,
अपने     ही    साए     को    बढ़ते     देखा    है। 

उससे   हाल    छुपाना   तो   है    नामुमकिन,
हमने     उसको    आँखें     पढ़ते    देखा     है। 

अश्क   रवां    रखना    ही   अच्छा   है  वरना,
तालाबों     का    पानी    सड़ते     देखा      है। 

 इक  उम्मीद   को   हमने  अक्सर  ख़ल्वत  में,
 एक      अधूरी    मूरत      गढ़ते     देखा     है। 

दिल     मे  कोई   है   जिसको  अक्सर  हमने,
हर   इल्ज़ाम   हमीं   पर    मढ़ते    देखा   है। 
           मनीष शुक्ल

तुम्हें  पाने  की  ख़्वाहिश   है  मगर  छूने  से डरते हैं
सुना  है ओस  के  क़तरे  बड़ी  जल्दी   बिखरते    है

तुम्हारी     याद  से   मन्सूब   अफ़सुर्दा    अंधेरों    मे
कई   मंज़र  चमकते   है   कई  साए     उभरते     है

वो कुछ रातें जो  तुमने चांदनी बनकर मुनव्वर कीं
उन्हीं  रातों  के  सदके  से किसी के दिन गुज़रते है

कभी तकते है मुस्तकबिल के मुबहम आस्मानों को
कभी  माज़ी  के  आशुफ़्ता  अंधेरों   मे  उतरते    हैं

कभी उकता के  उठते है  बगूला बन के हम ख़ुद मे
कभी  दिल   के   बयाबां   मे   गुलों के रंग  भरते  हैं 

बड़ी  जादू  भरी  होती  है अहल-ए--हिज्र की रातें
क़मर देता है मौज़ू और   सितारे   बात   करते हैं 

 हम अक्सर रूबरू रखकर तुम्हारी याद का दरपन
कभी   मायूस   होते   है,   कभी   बनते  संवरते हैं 

हमें   मालूम   है आख़िर   अँधेरा   छा ही    जाएगा
मगर  उम्मीद  मे बुझते   दिए   की  लौ   कतरते  हैं 

बड़ी काविश से  आते  हैं  हक़ीक़त   की चटानों पर
बड़ी मुश्किल  से ख़्वाबों  के तलातुम से  उबरते हैं