पा ब ज़ंजीर थीं हालात की मारी चीख़ें
आह बनकर ही निकल पाईं हमारी चीख़ें
चीख़ते चीख़ते कुहराम मचा रखा है
फिर भी सुनता है यहाँ कौन तुम्हारी चीख़ें
सुनने वाला ही नहीं था कोई तनहाई थी
सिसकियाँ बन गईं आख़िर में हमारी चीख़ें
पहले देखा न सुना दर्द का मातम ऐसा
वो समाअत पे सरकती हुई आरी चीख़ें
शोर करना तो था ममनूअ तिरी बस्ती में
तो सियाही से हैं काग़ज़ पे उतारी चीख़ें
गूंजती ही रहीं जंगल की फ़ज़ाएं पैहम
जब तलक पड़ न गईं सांस पे भारी चीख़ें
हो गया चीख़ के ख़ामोश परिंदा लेकिन
मुद्दतों तक रहीं माहौल पे तारी चीख़ें
फिर ज़मीं पर कोई हंगाम हुआ चाहे है
हो रही हैं सुना अफ़लाक से जारी चीख़ें
एक दिन फूट के निकलेगा सदा का दरिया
हमने सीने में छुपा रखी हैं सारी चीख़ें
मनीष शुक्ल