Thursday 30 August 2018



کوئی  تیرا  یہاں   ثانی   نہیں  ہے 
کہ سب میں آگ ہے پانی نہیں ہے 

تجھے پانے کے سب اسباب ہیں پر 
تجھے  پانے  کی آسانی  نہیں  ہے 

محبّت میں   خسارہ   تو  بہت  ہے 
مگر  اتنی  بھی  ارزانی  نہیں  ہے 

ابھی  ساحل  پہ  کشتی  مت   لگاؤ 
ابھی  ساحل  پہ  طغیانی  نہیں  ہے 

پریشانی   یہی    ہے   در  حقیقت 
ہمیں   کوئی   پریشانی   نہیں  ہے 

تری  ہر  بات  ہے  تسلیم   ہم  کو 
یہ  بھولاپن   ہے  نادانی نہیں ہے 

تہیہ    کر  چکے  ہیں خامشی  کا 
ہمیں   اب  داد   فرمانی  نہیں  ہے 

کئی   اشعار   تیرے    قیمتی  ہیں 
مگر  کوئی  بھی  لا ثانی نہیں ہے 

منیش' اب غیر ممکن ہے سلجھنا' 
اگرچہ   بات    الجھانی   نہیں  ہے 






Friday 3 August 2018

عشق   میں   اتنا  خسارہ    کیوں   کیا   تھا 
آپ  نے    پردہ   گوارا     کیوں    کیا    تھا 

آپ  تو  ہم   کو   سمندر  میں   ملے   تھے 
آپ    نے   ہم  سے   کنارہ  کیوں   کیا  تھا 

آپ  کو   سننا    گوارا    کیوں   نہیں   تھا 
آپ  نے   چپ  کا   اشارہ  کیوں  کیا    تھا 

روشنی چبھنے  لگی  آنکھوں  میں  دن کی 
رات   نے    تنہا    گزارا    کیوں  کیا   تھا 

آپ   کا سجدہ    مکمّل    کیوں   نہیں    تھا 
آپ   نے   سجدہ     دوبارہ  کیوں  کیا   تھا 

آپ  کے     اب ہوش   کیا    باقی    رہینگے 
آپ   نے   اپنا      نظارہ    کیوں  کیا   تھا 

آپ  کا خود  پر  کوئی    اب   حق  نہیں  ہے 
آپ   نے   خود   کو   ہمارا   کیوں  کیا  تھا 

آپ  تو   خود    کو    بخوبی   جانتے   تھے 
آپ    نے    اپنا     سہارا     کیوں   کیا   تھا 

جان   لینے   کی   اگر   خواہش  نہیں  تھی 
وار    پھر    اتنا    کرارا    کیوں    کیا   تھا 
منیش شکلا

Wednesday 11 July 2018



منیش شکلا 
٨/٤ 
ڈالی باغ  آفیسرس کالونی 
لکھنؤ 
٢٢٦٠٠١



محترم جناب شمس الرحمان  فاروقی صاحب 

پرخلوص آداب 

 بعد سلام سب سے پہلے معذرت کہ اتنی تاخیر سے آپکو سلام  پیش کرنے کی ہمّت
 جٹا پایا  - میں آپکا دل کی گہرائیوں  سے شکرگزار  اور  ممنون  ہوں کہ   آپ  نے
 مجھ جیسے نو پیدا تخلیق کار کی ناقص  کتاب " روشنی جاری کرو"  پہ اپنا  بیش
 قیمت وقت دے  کر اظہار  راۓ  کی  زحمت  فرمائی  -آپکو  برسوں سے  پڑھ  رہا
 ہوں اور آپکی بین ا لاقوامی شخصیت اور علم سے آشنا ہوں - میرے لئے آپکےیہ 
چند الفاظ کتنا  بڑا  اثاثہ  ہیں  میں  بتا  نہیں  سکتا   -آپکے  ایک خط نے مجھے
 کتنا حوصلہ عطا  کیا  ہے  میں  بیان نہیں کر سکتا  -  کبھی  خواب  میں  بھی نہیں
 سوچا تھا کہ آپکے  دست مبارک  سے لکھا  ہوا خط مجھے  موصول   ہوگا  - الله 
 -آپکو صحتیاب  رکھے اور آپکی عمر   دراز  کرے -  آپ  ہمارے وقت کا اثاثہ  ہیں
 گزارش ہے کہ اپنے ذہن  کے کسی گوشے میں مجھے بھی جگہ  دے دیجییگا اور 
میرے واسطے دعا کیجیےگا  کہ میں اس انتشار زدہ  دنیا  میں ٹھیک  ڈھنگ  سے
 جینے کی صلاحیت حاصل  کر سکوں  اور اگر اوپر والے نے  مجھے  شاعری  کا 
- فن عطا   کیا  ہو  تو اسکو  آخری  حد  تک  پہنچا کے دنیا سے رخصت ہو سکوں
 ایک  بار  پھر آپکا  دل  کی گہرائیوں  سے  شکریہ کہ  اپنے مجھے  اپنی   توجھ 
  کے لایق  سمجھا  - انشا الله  کسی  روز  آپکے  رو برو  سلام  پیش  کرنے آپکی 
- بارگاہ میں حاضر ہوتا ہوں

ممنون و مشکور 
آپکا  


منیش شکلا 
لکھنؤ 

Tuesday 10 July 2018



پالکی   روک   لو  بہاروں   کی 
آخری   شام   ہے  نظاروں   کی 

اب  سبق  حفظ  ہو  گیا   ہم   کو 
اب  ضرورت  نہیں  اشاروں کی 

اس  میں پربت کا دل پگھلتا ہے 
یہ   کہانی   ہے   آبشاروں  کی 

راستہ  بھی  ہے  خارزاروں  کا 
منزلیں  بھی  ہیں خارزاروں  کی 

ہم  ستارے  بھی  توڈ لاتے تھے 
شرط  رکھتے تھے ماہپاروں  کی 

خود  کو ایسے اداس مت رکھیے 
جان   جاتی  ہے غم گساروں  کی 

 جانثاری    کی   بات    کی  جاۓ 
یہ  ہے   توہین     جانثاروں   کی 

آپ  خود کو سنبھال   کر  رکھیے 
آپ  تصدیق   ہیں   بہاروں    کی 

اب  سحر  تک  اداس  رہنا   ہے 
روشنی   بجھ   گیئ شراروں کی 
منیش 


Friday 6 July 2018



کہانی  کو  کہاں  منظور  تھے  ہم 
مگر  کردار  کیا  بھرپور  تھے ہم 

وہاں  ہونا   پڑا  ہے  سر  بسجدہ 
کشیدہ  سر  جہاں مشہور تھے ہم 

اب آنکھیں  ہی نہیں اٹھتیں ہماری 
بہت  دن تک بہت مغرور  تھے ہم 

وہ قد قامت  تمھارے ساتھ ہی تھا 
تمھارے  بعد  چکناچور  تھے  ہم 

تمہارے  بعد  روشن  ہو  گئے ہیں 
تمھارے  سامنے  بےنور تھے ہم 

تمھیں  ہم  شکریہ بھی کھ نہ پاے 
تمھارے  اس قدر مشکور تھے ہم 

مداوا  ہی  نہیں  ممکن  تھا  کوئی 
اک ایسے زخم  کا ناسور  تھے ہم 
منیش 

Thursday 28 June 2018



गुज़ारी उम्र पियाला ओ  मय बनाने में।
फिर आग हमने लगा दी शराबख़ाने में.

ख़ुद आपने आप को हम देख ही नहीं पाए ,
हमारा ध्यान लगा ही रहा ज़माने में।

सब अपने आप को ढूँढा किये बहर सूरत ,
हम अपना आप सुनाते रहे फ़साने में।

तुम्हारी  याद सताएगी उम्र भर हमको ,
ज़रा सा वक़्त लगेगा तुम्हें भुलाने में।

यूँ एक पल में ज़मींदोज़ मत करो हमको ,
हज़ारों  साल  लगे हैं  हमें  बसाने  में।

ख़ुद अपने आप के कितना क़रीब आ पहुंचे ,
हम अपने आप को तेरे क़रीब लाने में।

हमारी तिशनादहानी  का कारनामा है ,
लगी हैं ओस की बूँदें नदी बनाने में।

बहुत तवील था क़िस्सा गुनाह ए अव्वल का ,
सो एक उम्र लगा दी तुम्हें सुनाने में।

हमारी बात में कुछ दिलफ़िगार शिकवे हैं,
वगरना उज्र नहीं था तुम्हें बताने में।

सजाने।  बिताने। बताने




इतना ज़ियादा ज़िंदा रहना ठीक है क्या।
हरदम यूँ ताबिन्दा रहना ठीक है क्या।

जो   होता  है   होते   रहने  देते  हो ,
क़िस्मत का कारिंदा रहना ठीक है क्या।

क्यूँ बेकार में दर्ज किया अपना क़िस्सा ,
दुनिया में आईन्दा रहना ठीक है क्या।

कितने सारे जंगल रहते हैं हम में ,
बस्ती का बाशिंदा रहना ठीक है क्या

हम मिटटी के पुतले फ़ानी  होते हैं ,
हम सब का पाईन्दा  रहना ठीक है क्या।

हर्फ़ ओ मआनी मिल कर शोर मचाते हैं ,
लफ़्ज़ों का साज़िन्दा रहना ठीक है क्या।

जो कुछ कर सकते थे कर के देखा था ,
हार के यूँ शर्मिंदा रहना ठीक है क्या।

फिर सब मस्ती का कारन भी पूछेंगे ,
हर लम्हा रक़्सिंदा रहना ठीक है क्या।

चाँद सितारे फीके लगने लगते हैं ,
इस दर्जा रख़शंदा रहना ठीक है क्या।
 


Wednesday 27 June 2018



कैसा हंगाम उठाया था कभी।
ख़ुद को जी जान से चाहा था कभी।

ख़ामुशी चीख उठी थी डरकर ,
हमने वो शोर मचाया था कभी।

हम भी हंस हंस के मिले थे सब से ,
हमने भी सोग मनाया था कभी।

वो ही मालिक है हमारा देखो ,
जिसको मेहमान बनाया  कभी।

हमको आता है बिछड़ने का हुनर,
हमने भी साथ निभाया था कभी।

हमने हर बात बता दी सबको ,
हमने हर दाग़ छुपाया था कभी। 


तुझसे मिलने का इरादा तो नहीं करते हैं।
फिर भी मिलने पे किनारा तो नहीं करते हैं।

तुझसे मिलने तिरी महफ़िल में चले आते हैं ,
तुझसे उल्फ़त का तक़ाज़ा तो नहीं करते हैं।

सच बता यार कि हम तेरा सहारा बनकर ,
तेरी लग़ज़िश में इज़ाफ़ा तो नहीं करते हैं।

हम को तस्लीम किया जाता है मजबूरी में ,
हमको सब लोग गवारा तो नहीं करते हैं।

बस तिरा नाम लिया करते हैं दिल ही दिल में ,
तुझको हर वक़्त पुकारा तो नहीं करते हैं।

कुछ तो कहते हैं चमक कर ये सितारे हमसे ,
हमसे मिलने का इशारा तो नहीं करते हैं।

ख़ुद से  हर बात छुपाते  तो नहीं हैं फिर भी ,
ख़ुद को  हर बात बताया तो नहीं करते हैं।





तिरे होंठों में अपनी तिश्नगी बोते रहे पैहम।
तिरे ज़रिये हम अपने आप के होते रहे पैहम।

तुझे पाना भी इस दर्जा फ़रहत आमेज़ है हमदम ,
तुझे पाकर भी हर दफ़आ तुझे खोते रहे पैहम।

हमें कोई उठाए फिर रहा था अपनी बाँहों में,
हम अपने आप को बेकार ही ढोते रहे पैहम।

दुआ देती रही दुनिया हमें सुर्ख़ाब होने की ,
हम अपने ही लहू में तर ब तर होते रहे पैहम।

हमें बाँहों में लेके प्यार से चूमा नहीं जब तक ,
लिपटकर ज़िन्दगी से तब तलक रोते रहे पैहम।

यक़ीं मनो वो कल शब् ख़्वाब में ख़ुद चल के आया था ,
मगर ऐसा हुआ हम रात भर सोते रहे पैहम।






तेरे ज़ख़्मों को इंदेमाल करें।
आ तबीयत तिरी बहाल करें।

एक मुद्दत के बाद देखा है ,
तुझसे इक तल्ख़  सा सवाल करें।

जिसको खोने का शरफ़ हासिल है ,
उसको  खोने का क्या मलाल करें।

मैं   उन्हें   बोलते  हुए  देखूं ,
वो  मिरा बोलना  मुहाल करें।

कौन संजीदगी से सुनता है ,
किस भरोसे पे अर्ज़ ए हाल करें।

बारहा तुझको याद आ आकर ,
तेरी ख़ल्वत में इख़्तेलाल करें।

जी में आता है एक दिन ख़ुद को ,
अपने हाथों से पायमाल करें।




वक़्त ए रुख़सत हिसाब कर देगी।
ज़िन्दगी लाजवाब कर  देगी।

जोड़ती जा रही है बाब मिरे ,
तू तो मुझको निसाब कर देगी।

कोई गोशा तलाशना होगा ,
वरना दुनिया ख़राब कर देगी।

ये तिरी ख़्वाब परस्ती इक दिन ,
हर हक़ीक़त सराब कर देगी।

गर कोई उसकी आरज़ू पूछे ,
वो मिरा इन्तेख़ाब कर देगी।

ये कहानी है पिछले जन्मों की ,
पल में कैसे ख़िताब कर देगी।

ये जो ग़मसाज़ सी तबीयत है ,
तुझको महव ए सराब कर देगी।




जब तिरी दास्ताँ सुनाई दी।
तब हमें रौशनी दिखाई दी।

हमने जब भी उदासियाँ लिखीं ,
तेरी पलकों ने रौशनाई  दी।

ख़्वाब आँखों में रख लिए तेरे ,
हमने नींदों को मुंह दिखाई दी।

वार जी जान से किया उसने ,
हमने अग़यार को बधाई दी।

दिन में कुछ भी नज़र नहीं आया ,
मेरी आँखों ने रतजगाई दी।

उसका चेहरा दिखा दिया उसको ,
हमने तरक़ीब से सफ़ाई दी।

एक तो दाम में फंसे उस पर ,
हमने सय्याद को बंधाई दी।





दर्द  बरबाद नहीं करते हैं।
ज़ख़्म फ़रियाद नहीं करते हैं।

जो भी होता है हुआ करता है ,
ख़ुद को नाशाद नहीं करते हैं।

अच्छा लगता है मुक़य्यद रहना ,
खुद को आज़ाद नहीं करते हैं।

हम को कहनी है कहानी दिल की ,
आप इरशाद नहीं करते हैं।

उसको भूले तो नहीं हैं लेकिन,
अब उसे याद नहीं करते हैं।

वो ज़रुरत को समझते हैं मगर ,
कोई इमदाद नहीं करते हैं।

चाहते तो हैं तराशें परबत ,
खुद को फ़रहाद नहीं करते हैं।

दश्त को पार किया जाता है ,
दश्त आबाद नहीं करते हैं।

छोड़ देते हैं कहानी को 'मनीष ',
ख़त्म रूदाद नहीं करते हैं।





ख़ुद को सारी  रात जलाया जाता है।
तब सूरज को मुंह दिखलाया जाता है।

ख़्वाब को सच्चा मान के जीना ठीक नहीं ,
ख़्वाबों से तो जी बहलाया जाता है।

फिर ताउम्र उसी का रहना पड़ता है,
कुछ दिन तक जिसका कहलाया जाता है।

उसकी रेशम रेशम नज़रों से पूछो ,
ज़ख़्मों को कैसे सहलाया जाता है।

उसकी तपती साँसों को मालूम है ये ,
कैसे हर लोहा पिघलाया जाता है।

मेरे बारे में इतना मत सोचा कर  ,
फूल सा ये चेहरा कुम्हलाया जाता है।

दीवानों पर तंज़ नहीं करते लोगों।,
दीवानों को होश में लाया जाता है।








शेर के पैकर में ढल जाए ग़ुबार।
काश अंदर से निकल जाए ग़ुबार।

बारिशें आने को हैं अच्छा है ये ,
वक़्त के रहते संभल जाए ग़ुबार।

फिर न मैं उसकी तरफ़ बढ़ने लगूं ,
चाल फिर कोई न चल जाए ग़ुबार।

हो भी सकता है भरम नज़रों का हो ,
हाथ लगते ही पिघल जाए ग़ुबार।

या हवा में ही उड़ा डाले  मुझे ,
या तो मिटटी में बदल जाए ग़ुबार।

रात दिन नज़रों में रहता है मिरी ,
मेरी आँखों में न पल जाए ग़ुबार।

हट नहीं सकता है तो ऐसा करे ,
मुझको चुपके से निगल जाए ग़ुबार।





दर्द का कारोबार मुअत्तल हो जाता।
काश मिरा एहसास मुकफ़्फ़ल हो जाता।

सीने में इक तीर मुहल्लल हो जाता ,
दौर ए जुनूं कुछ और मुतव्वल हो जाता।

काश अचानक कोई मुझे भी छू लेता ,
खाक बदन इक बार तो संदल हो जाता।

काश मैं उसके इश्क़ से ग़ाफ़िल ही रहता ,
काश वो मेरे इश्क़ में पागल हो जाता।

तूने इक मिसरे को जितना वक़्त दिया ,
इतने में तो शेर मुकम्मल हो जाता।

काश तुम्हारे ख़्वाब हमारे हो जाते ,
एक अधूरा ख़्वाब मुशक्कल हो जाता।

महफ़िल में अहबाब नहीं आये वरना  ,
अच्छा ख़ासा जाम हलाहल हो जाता।






Tuesday 12 June 2018


کہانی  کو  کہاں  منظور  تھے  ہم
مگر  کردار  کیا  بھرپور  تھے ہم

وہاں  ہونا  پڑا  ہے   سر   بسجدہ
کشیدہ  سر  جہاں  مشہور تھے ہم

اب  آنکھیں ہی نہیں اٹھتیں ہماری
بہت  دن تک بہت مغرور تھے  ہم

وہ  قد قامت تمہارے ساتھ ہی  تھا
تمھارے  بعد  چکناچور  تھے  ہم

ہمیں اب زیر کرتے ہیں  اندھیرے
ابھی  تک  محفلوں کا نور تھے ہم

تمہاری  بات  لوگوں  نے اٹھا دی
تمہارے  نام  پر  مجبور  تھے  ہم

تمہارے  بعد  روشن  ہو  گئے ہیں
تمھارے  سامنے  بے نور تھے ہم

تمھیں  ہم شکریہ  بھی  کہ نہ پاے
تمھارے اس  قدر  مشکور تھے ہم

نئی  بستی   میں   آکر   کیا   بدلتے
پرانے   وقت  کا   دستور  تھے  ہم
منیش 


بخت کی نا فرمانی بھی تو ہو  سکتا ہے 
عزم  ترا  نادانی  بھی  تو  ہو  سکتا ہے 

گڈھتا  ہے  ہم   جیسے  مٹی   کے  پتلے 
اپنا خالق    فانی  بھی  تو  ہو  سکتا  ہے 

اتنا  پاکیزہ  رہنا   بھی   ٹھیک   ہے  کیا 
عشق  ذرا  انسانی  بھی  تو  ہو سکتا ہے 

مانا  جسم  کی  اپنی  حاجت ہے پھر بھی 
یہ  مسلہ  روحانی  بھی  تو  ہو  سکتا ہے 

کیا  کشکول  بدستی  سب   پر  لازم   ہے 
اک  شاعر  سلطانی  بھی  تو ہو سکتا ہے 

میں اس  کا دیوانہ بھی تو بن سکتی ہوں 
وہ  میری  دیوانی  بھی  تو  ہو  سکتا ہے 

اچھا  خاصا  لہجہ    بخشا  ہے  رب  نے 
یہ  لہجہ  لاثانی  بھی  تو  ہو  سکتا   ہے 

کیا   اتنے   دن   زندہ   رہنا   لازم    ہے 
مرنا   با  آسانی   بھی  تو  ہو  سکتا  ہے 

مجرم  پتھر   کا   ہو   جاۓ   ٹھیک  مگر 
شرم  سے پانی پانی بھی تو ہو سکتا ہے 

منیش 


وہی   منظر     دوبارہ    دیکھنا     ہے 
اسے سارے   کا    سارا  دیکھنا   ہے 

شبیہیں  چھین  لو آنکھوں  سے  ساری  
اسے    بے    استعارہ      دیکھنا    ہے 

وہ  جس  نے راکھ کر ڈالا  تھا   ہم   کو 
وہ  شبنم   کا     شرارہ    دیکھنا    ہے 

ابھی  تک سحر میں جس کے بندھے ہیں  
وہ   جادو   کا     نظارہ      دیکھنا    ہے 

ہماری      آخری     قیمت       لگا    دو 
 ہمیں   پورا     خسارہ      دیکھنا     ہے 

ہمیں     پروا      نہیں    موج     بلا کی 
فقط    اس   کا    اشارہ     دیکھنا   ہے 

کنارے    سے   بھنور  کو دیکھتے ہیں  
وہاں   جا    کے   کنارہ    دیکھنا    ہے 

منیش 

Tuesday 29 May 2018


ہم  آ  کے   لوٹ   گئے  تھے   جہاں   بلایا   تھا 
تمھارے   ساتھ   کوئی   دوسرا   بھی   آیا   تھا 

ہمیں   بھی  دشت  کی  وسعت  کو  پار کرنا  تھا 
ہمارے    پاس    مگر   آنسوں    کا    سیا   تھا 

ہم   اپنے   آپ   کا   کس   سے خطاب  کر  لیتے 
ہر   ایک   شخص   وہاں   بزم   میں   پرایا  تھا 

وہ   اک   زمین   کا  ٹکڑا   اداس   ہے   اب  تک 
ہمارے   خواب   کو   تم   نے   جہاں  گرایا   تھا 

ستارہ   بن   کے    فراموش   کر   دیا    ہم    کو 
ہمیں   نے  خاک  سے  تم  کو  کبھی  اٹھایا  تھا 

اب   اپنے  آپ  سے  سب  کچھ  اتار  پھینکا ہیں 
تمھارے  واسطے  خود   کو  کبھی  سجایا   تھا 

ہمارے  پاس  بھی  ایسے   حسین   لمحے  تھے 
جب    اپنے   آپ   کو  ہم   نے  بہت   رلایا   تھا 

تمھاری   اور   زمانے   کی   کیا   کہیں  ہم   دم 
خود   اپنے   آپ   کو   ہم  نے   بہت  ستایا  تھا 

ہمیں  بھی  چاند  نے  بخشا  تھا  چاندنی  جھومر 
ہماری    رات   کا    ماتھا   بھی   جگمگایا   تھا 

ہمارا     ہوش     اچانک     سنبھل     گیا   ورنہ 
 ہمارا    جسم      کئی      بار      ڈگمگایا       تھا 

تمھاری     بات   پہ  ہم  کو  یقین  بھی  کم   تھا 
تمھاری   آنکھ  میں آنسو  بھی   جھلملایا    تھا 

ہمیں بھی برق نے بخشی تھیں عظمتیں کچھ  پل 
ہمارے    نام    کا   پتھر    بھی     تمتمایا    تھا 

منیش شکلا 


وہ    بظاھر   فقیر    بنتا    ہے 
اس   کی شہ  پر  وزیر بنتا ہے 

آدمی  ہی سے عبرتیں بھی ہیں 
آدمی    ہی     نظیر    بنتا   ہے 

چار  دن  کا یہ کھیل  تھوڑی ہے 
کوئی  صدیوں میں  میر بنتا ہے 

وہ  نگاہیں کہاں  سے لاتے  ہو 
جن سے نظروں کا  تیر  بنتا  ہے 

قید  کرتا  ہے  وہ ہمیں خود ہی 
اور   خود  ہی   اسیر   بنتا  ہے 

اور سب یوں ہی فوت ہوتے ہیں 
بس    پیادہ     وزیر    بنتا   ہے 

سب   کی  نظریں  اتار  لیتا  ہے 
تب   کوئی   بے  نظیر  بنتا  ہے 

منیش شکلا 

Wednesday 2 May 2018


شور و غل  کے بعد  سناہے جاینگے 
اصلی نغمیں دشت میں گاے   جاینگے 

پہلے  ہم  کو  بزم  میں  لایا  جاےگا 
پھر  اس  کے  آداب  سکھاے  جاینگے 

کچھ دن تک مہمان نوازی  بھی ہوگی 
بام  و  در  کچھ  روز  سجاے  جاینگے 

آنکھوں کو  کچھ  دن  بہلایا  جاے گا 
سچے جھوٹے  عکس  دکھاے جاینگے 

ماضی  کا   ہر   باب    تلاشا   جاےگا 
سارے   مجرم  دار  پہ  لاے    جاینگے 

شام کے وقت بدن سے باہر نکلے ہیں 
جانے  کتنی  دور  یہ   ساے   جاینگے 

سب  کو  اصلی  بات  بتانی  ہی  ہوگی 
کب  تک  یوں  ہی  بات بناے جاینگے 
منیش 
جو ابھی تک  نہیں  کہا  کہتے 
کاش  اک  شعر  تو  نیا  کہتے 

تو ہی قصّے میں جا بجا ہوتا 
تیرا  قصّہ  ہی  جا   بجا  کہتے 

تم  تو خاموش ہو گئے مل کر 
یار  کچھ  تو   بھلا   برا  کہتے 

سب  کی  آواز  مختلف   نکلی 
ہم   کسے   اپنا   ہم نوا  کہتے 

 ایک  لمحہ  نہ  مل  سکا  ایسا 
جس کو صدیوں کا سلسلہ کہتے 

ہوش  باقی  جو   رہ  گیا  ہوتا 
تیری آنکھوں کو مے کدہ  کہتے 

کاش   بےکار  ہو   گئے  ہوتے 
سب  ہمیں کچھ تو  کام  کا کہتے 

جو  بھی  ہو  زندگی  ہماری ہے 
شرم   آتی  ہے   بد مزہ   کہتے 

اپنی  پلکیں  جھپک گیں ورنہ 
لوگ  ہم  کو  بھی  دیوتا   کہتے 
منیش 

Thursday 22 March 2018



ناخداؤں   کی   سرپرستی  میں 
جی رہے ہیں خدا کی بستی میں 

سنگ  ساری سے در نہیں لگتا 
چوٹ کھائی ہے گل پرستی میں 

رہن  رکھنی  پڑی   ہیں  تعبیریں 
خواب دیکھا تھا تنگ  دستی میں 

ایری غیری  شراب  مت  چھونا 
فرق ہوتا ہے مہنگی سستی میں 

تیرے  چاہے   بغیر   مٹ   جائے 
اتنی  جرأت  کہاں ہے ہستی میں 

لوگ  پتھر  کے  ہو گئے  دیکھو 
اتنا  ڈوبے  ہیں  بت  پرستی میں 

جب  سے  آتش  فروش اے ہیں 
آگ  لگنے  لگی  ہے  بستی میں 

چلتے چلتے نکل گئے خود سے 
ہم  بھی  دیوانگی کی مستی میں 

اب    تو   ہم  کو  عروج  پر   لاؤ 
کب سے ڈوبے ہوئے ہیں پستی میں 
منیش شکلا 


Tuesday 6 March 2018



بعض   اوقات   بھی   نہیں   کرتے 
اب  تری   بات  بھی   نہیں   کرتے 

ایک  تو  دھوپ  چھین لی اس  پر 
ابر   برسات    بھی   نہیں    کرتے 

اب    کوئی    اجنبی    نہیں   لگتا 
اب   ملاقات    بھی    نہیں   کرتے 

کتنا  کچھ  بھر گیا ہے سینے میں 
اور   ہم  بات   بھی    نہیں   کرتے 

ہم   اگر تجھ  سے بد گماں   ہو تے 
تو   سوالات    بھی   نہیں    کرتے 

وہ   ہی   سارے  فساد کی جڈ ہیں 
اور  فسادات   بھی    نہیں   کرتے 

شب  کی  تنہائیوں  کی خواہش  ہے 
دشت   میں  رات  بھی  نہیں  کرتے 

منیش شکلا 

Monday 5 February 2018


اس  سے  ملنا     محال    تھا   اپنا 
ہجر   جیسا     وصال      تھا    اپنا 

وہ بھی رویا نہیں تھا  برسوں سے 
اس  کے  جیسا  ہی  حال   تھا اپنا 

سیدھے سیدھے  جواب  دے  دیتے 
سیدھا    سادہ     سوال    تھا  اپنا 

تیری  قربت میں آ کے  ہنستے ہیں 
ورنہ   ہم    کو    ملال    تھا   اپنا 

اس کے جاتے ہی بجھ گیا سب کچھ 
اس  کے  دم  سے  جلال  تھا  اپنا 

ہم نے جی بھر کے   چاندنی  چکھی 
اپنی   چھت   تھی    ہلال   تھا  اپنا 

بات  بھی  معرکہ   کی  کہتے تھے 
اس   پہ    لہجہ    کمال    تھا  اپنا 

ہم کو  جانا تھا اب بھی میلوں تک 
جسم  تھک   کر   نڈھال   تھا  اپنا 

وہ  اندھیرے  میں  ہی  گیا  اٹھ کر 
اس    کو   اتنا    خیال   تھا   اپنا 


منیش شکلا 

Wednesday 31 January 2018




सीने में  उम्मीद का  सूरज  और  आँखों  में  पानी   है। 

बदलेंगे  तस्वीर  ज़माने   की   ये   दिल  में  ठानी   है। 

हमने  इक ख़ुशहाल चमन का ख़्वाब सुनहरा देखा  है ,

हमको हर इक फूल की रंगत फिर वापस लौटानी है। 


साहिल से मुस्कुरा के तमाशा न देखिये,

हमने ये ख़स्ता नाव विरासत में पाई है।



बारिश के इंतज़ार में सदियां गुज़र गयीं ,

उट्ठो  ज़मीं को चीर के पानी निकाल लो। 


हर एक ज़र्रे के रुख़ पर निखार आने तक ,
उदास बाग़ के दिल को क़रार आने तक ,
चमन का फूल का रंगों का तब्सरा होगा ,
कुछ इंतज़ार तो करिये बहार आने तक 

शहर के अंधेरे को  इक चराग़ काफ़ी है,

सौ चराग़ जलते हैं  इक चराग़ जलने से।

ज़मीं के ख़ार चुनने से चमन में फूल आने तक। 
हमीं मिलते रहे हैं ख़ाक में पतझड़ के जाने तक। 
हमारी बाग़बानी पर वही उंगली उठाते हैं ,
कि जिनको बाग़ से मतलब रहा ख़ुश्बू चुराने तक।  

मेरे जुनूं का नतीजा ज़रूर निकलेगा।

इसी सियाह समंदर से नूर निकलेगा।


न हमसफ़र  न किसी  हमनशीं से निकलेगा।

हमारे पाओं  का  कांटा  हमीं  से  निकलेगा।


तमाम    राह     तुम्हें     बारहा     रुलाएंगे।
सफ़र  के  सारे    मक़ामात   याद    आएंगे।
ये जिनकी रौशनी तुमको अखर रही है अभी ,


यही     चराग़    तुम्हें    रास्ता     दिखाएंगे।

Wednesday 17 January 2018



اس  سے  ملنا     محال    تھا   اپنا 
ہجر   جیسا     وصال      تھا    اپنا 

وہ بھی رویا نہیں تھا  برسوں سے 
اس  کے  جیسا  ہی  حال   تھا اپنا 

سیدھے سیدھے  جواب  دے  دیتے 
سیدھا    سادہ     سوال    تھا  اپنا 

تیری  قربت میں آ کے  ہنستے ہیں 
ورنہ   ہم    کو    ملال    تھا   اپنا 

اس کے جاتے ہی بجھ گیا سب کچھ 
اس  کے  دم  سے  جلال  تھا  اپنا 

ہم نے جی بھر کے   چاندنی  چکھی 
اپنی   چھت   تھی    ہلال   تھا  اپنا 

بات  بھی مارکہ   کی  کہتے تھے 
اس   پہ    لہجہ    کمال    تھا  اپنا 

ہم کو  جانا تھا اب بھی میلوں تک 
جسم  تھک   کر   نڈھال   تھا  اپنا 

وہ  اندھیرے  میں  ہی  گیا  اٹھ کر 
اس    کو   اتنا    خیال   تھا   اپنا 
منیش شکلا