ग़ज़ल
कुछ पोशीदा ज़ख़्म अयाँ हो सकते थे।
उस से मिलकर दर्द रवाँ हो सकते थे।
उन आँखों को देर तलक देखा होता,
उन आँखों में ख़्वाब निहाँ हो सकते थे।
तुमने एक सितारे को दुनिया समझा ,
उस के आगे और जहाँ हो सकते थे।
तुम तो पहले दरवाज़े से लौट आये ,
बस्ती में कुछ और मकाँ हो सकते थे।
रफ़्ता रफ़्ता आ पहुंचे वीराने तक ,
हम दीवाने और कहाँ हो सकते थे।
हर सूरत बनती थी और बिगड़ती थी ,
इस आलम में सिर्फ गुमाँ हो सकते थे।
आग हवा और पानी ही सरमाया था ,
हद से हद हम लोग धुवाँ हो सकते थे।
मनीष शुक्ल