ग़ज़ल
दिन का लावा पीते पीते आख़िर जलने लगता है।
होते होते शाम समंदर रोज़ उबलने लगता है।
ज़ब्त धुवां होने लगता है अंगारों की बारिश में ,
फूल सा लहजा भी उकताकर आग उगलने लगता है।
ताबीरों के चेहरे देख के वहशत होने लगती है ,
नींद में कोई डरकर अपने ख़्वाब कुचलने लगता है।
इक चेहरा आड़े आ जाता है मरने की ख्वाहिश के ,
उसको देख के जीने का अरमान मचलने लगता है।
मुश्किल ये है वक़्त की क़ीमत तब पहचानी जाती है ,
जब हाथों से लम्हा लम्हा वक़्त फिसलने लगता है।
ये भी होता है ग़म के मफ़हूम बदलते जाते हैं ,
यूँ भी होता है अश्कों का रंग बदलने लगता है।
अफ़सुर्दा करता है अक्सर शबनम जैसा एक ख़याल ,
गाहे गाहे आकर रुख पे ख़ाक सी मलने लगता है।
नम झोंके नमकीन हवा के जिस्म में घुलते जाते हैं ,
पत्थर कैसा भी हो आख़िरकार पिघलने लगता है।
बूँद को दरिया में खो देना इतना भी आसान नहीं ,
मदहोशी तक आते आते होश संभलने लगता है।
मनीष शुक्ला
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