लड़खड़ाती हुई गुफ़्तार संभाले हुए हैं ।
हम अभी रौनक़ ए बाज़ार संभाले हुए हैं।
हम अभी रौनक़ ए बाज़ार संभाले हुए हैं।
अब ये आवाज़ बिखरने सी लगी है फिर भी ,
हम अभी क़ुव्वत ए इज़हार संभाले हुए हैं।
बदहवासी में गुज़र जाती कभी की हद से ,
आबले पाओं के रफ़्तार संभाले हुए हैं।
ख़ुद को होने न दिया ठीक किसी भी सूरत ,
अब तलक हम तिरा पिन्दार संभाले हुए हैं।
और कुछ हाथ में आये भी तो कैसे आये ,
हम तिरी याद का अम्बार संभाले हुए हैं।
हम तो मिस्मार हुए कबके बदन में अपने ,
हमको अहबाब ये बेकार संभाले हुए हैं।
इक मसीहा का भरम रखने की ख़ातिर अब तक ,
ख़ुद को तदबीर से बीमार संभाले हुए हैं।
मनीष शुक्ल
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