गुज़ारी उम्र पियाला ओ मय बनाने में।
फिर हमने आग लगा दी शराबख़ाने में।
ख़ुद अपने आप को हम देख ही नहीं पाए ,
हमारा ध्यान लगा ही रहा ज़माने में।
सब अपने आप को ढूंढ़ा किए बहरसूरत ,
हम अपनी दास्ताँ कहते रहे फ़साने में।
तुम्हारी याद सताएगी उम्र भर हमको ,
ज़रा सा वक़्त लगेगा तुम्हें भुलाने में।
यूँ एक पल में ज़मींदोज़ मत करो हमको ,
हज़ारों साल लगे हैं हमें बनाने में।
ख़ुद अपने आप के कितना क़रीब आ पहुंचे ,
हम अपने आप को तेरे क़रीब लाने में।
हमारी तिश्ना दहानी का कारनामा है ,
लगी हैं ओस की बूँदें नदी बनाने में।
हमारी दास्ताँ कितनी तवील थी देखो ,
तभी तो देर लगाई तुम्हें सुनाने में।
मनीष शुक्ला
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