सर ओ सामानियों में जी रहे हो।
बड़ी अर्ज़ानियों में जी रहे हो।
बड़ी तकलीफ़ से गुज़रोगे इक दिन ,
बहुत आसानियों में जी रहे हो।
ये दुनिया है यहां ऐसा ही होगा ,
अबस हैरानियों में जी रहे हो।
मुहब्बत, बंदगी , पास ए अक़ीदत ,
ये किन नादानियों में जी रहे हो।
अभी शादाब लगता है सभी कुछ ,
अभी तुग़यानियों में जी रहे हो।
चलो सहरा में चलके ग़ुल मचाओ ,
ये किन वीरानियों में जी रहे हो।
न तैरा जाए है तुमसे न डूबा ,
ये कैसे पानियों में जी रहे हो।
असीरी से जो नावाक़िफ़ हैं अपनी ,
तुम उन ज़िन्दाँनियों में जी रहे हो।
मनीष शुक्ला
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