सफ़र के तसव्वुर से सहमा हुआ हूँ।
बड़ी देर से यूँ ही ठहरा हुआ हूँ।
उधर डूबते जा रहे हैं सितारे ,
इधर मैं ख़यालों में उलझा हुआ हूँ।
जलाने के क़ाबिल न लिखने के लाएक़ ,
मैं काग़ज़ हूँ सादा प भीगा हुआ हूँ।
संभाले हूँ ख़ुद को बड़ी काविशों से ,
मुझे छू न लेना मैं चटख़ा हुआ हूँ।
मुसलसल पड़ी है कड़ी धूप मुझ पर ,
मिरा रंग देखो मैं कैसा हुआ हूँ।
न बाक़ी है साया न बर्ग ओ समर हैं ,
मैं मौसम की साज़िश का मारा हुआ हूँ।
थमेंगी कभी तो मुख़ालिफ़ हवाएं ,
यही सोच कर खुद में सिमटा हुआ हूँ।
मनीष शुक्ल
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