Wednesday, 15 February 2017




आहटें   आ  रही    हैं   सीने  से। 
 अब  मरज़  बढ़  गया क़रीने से। 

ख़त्म  होता  है अब समंदर भी ,
अब   उतर  जाईये  सफ़ीने  से। 

अब   सरापा  नशे  में  रहते  हैं ,
हमको  रोका  गया था पीने से। 

हम  मआनी   तलाश  करते  हैं ,
उनको मतलब है सिर्फ़ जीने से। 

जिस में  हम पर बहार आई थी ,
अब  भी डरते  हैं उस महीने से। 

उस  ने  इतना  कुरेद  कर देखा ,
हम  चमकने  लगे   नगीने  से। 

अपने वक़्तों में गुमशुदा थे हम ,
हमको  ढूँढा   गया   दफ़ीने  से। 
मनीष शुक्ला 

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