आहटें आ रही हैं सीने से।
अब मरज़ बढ़ गया क़रीने से।
ख़त्म होता है अब समंदर भी ,
अब उतर जाईये सफ़ीने से।
अब सरापा नशे में रहते हैं ,
हमको रोका गया था पीने से।
हम मआनी तलाश करते हैं ,
उनको मतलब है सिर्फ़ जीने से।
जिस में हम पर बहार आई थी ,
अब भी डरते हैं उस महीने से।
उस ने इतना कुरेद कर देखा ,
हम चमकने लगे नगीने से।
अपने वक़्तों में गुमशुदा थे हम ,
हमको ढूँढा गया दफ़ीने से।
मनीष शुक्ला
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