बात कहने की छुपानी थी हमें।
कुछ कहानी तो सुनानी थी हमें।
हो गए राज़ी उजड़ने के लिए ,
इक नई दुनिया बसानी थी हमें।
कब तलक तूफ़ान का करते लिहाज़ ,
नाव साहिल पर लगानी थी हमें।
हम अकेले ही सफ़र करते रहे ,
ख़ाक आख़िर तक उड़ानी थी हमें।
हम बिना रख़्त ए सफ़र के चल पड़े ,
राह में मुश्किल उठानी थी हमें।
राह में मुश्किल उठानी थी हमें।
जाने क्यों देखा हुआ लगता था सब ,
हर नई सूरत पुरानी थी हमें।
अब उसी को भूलने लगते हैं हम ,
वो कहानी जो ज़ुबानी थी हमें।
मनीष शुक्ला
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