मुंतशिर करके कभी ख़ुद को मुरत्तब करके।
हमने देखा है कई बार यही सब करके।
शाम होते ही बयाबां में बदल जाते हैं ,
दिन के हंगाम का हर नक़्श मुख़र्रब करके।
अपनी तनहाई में हर रोज़ छलक लेते हैं ,
अपने एहसास के कासे को लबालब करके।
अपनी यकरंग तबीयत को रवां करते हैं ,
सरकशी करके कभी ख़ुद को मुहज़्ज़ब करके।
रोज़ हम ख़ुद से सवालात किया करते हैं ,
जाने किस किस को ख़यालों में मुख़ातब करके।
हम सुनाते ही चले जाते सहर तक लेकिन ,
तुमने क़िस्सा किया दुशवार कहाँ कब करके।
इक सियाही सी निगाहों में उतर आएगी ,
दिन को देखोगे अगर रोज़ यूँ ही शब करके।
मनीष शुक्ला
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