हर मंज़र का मोल चुकाना पड़ता है।
आँखों को इक दिन पथराना पड़ता है।
मंज़िल तक सब दश्तज़दा हो जाते हैं ,
रस्ते में इतना वीराना पड़ता है।
जो बातें लाहासिल ठहरीं पहले भी ,
उन बातों को ही दोहराना पड़ता है।
ख़्वाहिश है अपना क़िस्सा लिख दें लेकिन ,
बीच में तेरा भी अफ़साना पड़ता है।
झूठ के अपने ख़मियाज़े तो होते हैं ,
लेकिन सच पर भी जुर्माना पड़ता है।
गिरवीदा होना पड़ता है हर शै पर ,
फिर हर इक शै से कतराना पड़ता है।
बस्ती हम में सन्नाटे भर देती है ,
सहरा सहरा शोर मचाना पड़ता है।
मनीष शुक्ला
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