हमने अपने ग़म को दोहराया नहीं।
वो पुराना गीत फिर गाया नहीं।
जिसको पाने की दुआ करते रहे ,
वो मिला भी तो उसे पाया नहीं।
ये तो है उससे बिछड़कर फिर कभी ,
दिल किसी पत्थर से टकराया नहीं।
इक लम्हा आये थे हम भी होश में ,
फिर कभी वैसा नशा छाया नहीं।
चारागर की क्या कहें हमने कभी ,
ख़ुद को अपना ज़ख़्म दिखलाया नहीं।
आज कितनी मुद्दतों के बाद फिर ,
दिल अकेले में भी घबराया नहीं।
जिस्म की सरहद से बाहर आ गई ,
अब मुहब्बत पर कोई साया नहीं।
मनीष शुक्ला
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