वक़्त पैग़ाम का नहीं शायद।
अब मरज़ नाम का नहीं शायद।
इसका चाहा न कुछ हुआ अब तक ,
दिल किसी काम का नहीं शायद।
अब सहीफ़े ज़मीं से उगते हैं ,
दौर इल्हाम का नहीं शायद।
उतरा उतरा , सियाह , अफ़सुर्दा ,
रंग ये शाम का नहीं शायद।
ख़ामुशी की तनाब टूटी है ,
शोर कुहराम का नहीं शायद।
शोर कुहराम का नहीं शायद।
इश्क़ करना तबाह हो जाना ,
काम ईनाम का नहीं शायद।
मनीष शुक्ला
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