हसीं ख़्वाबों के बिस्तर से उठाने आ गए शायद।
नए सूरज मिरी नींदें उड़ाने आ गए शायद।
बहुत मायूस नज़रों से हमारी ओर तकती है ,
सफ़ीरान ए सहर शब को बुलाने आ गए शायद।
कहानी इक नए उन्वान पे आने ही वाली थी ,
मगर फिर बीच में क़िस्से पुराने आ गए शायद।
लबों पर मुस्कराहट टांक लेते हैं सलीक़े से ,
हमें भी दर्द के रिश्ते निभाने आ गए शायद।
हमारा दर्द अश्कों में नहीं शेरों में ढलता है ,
हमें भी ठीक से आंसू बहाने आ गए शायद।
हमारी वहशतें हद से ज़ियादा बढ़ गईं आख़िर ,
हमारे रक़्स करने के ज़माने आ गए शायद।
हमारा नाम ले लेकर पुकारे है हर इक शै को ,
सुना है होश मंज़िल के ठिकाने आ गए शायद।
मनीष शुक्ला
सफीरान ए सहर - सुबह के दूत
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