कितनी उजलत में मिटा डाला गया।
दफ़अतन सब कुछ भुला डाला गया।
फिर वही हम हैं वही ग़ार ए ख़ला ,
सामने से सब हटा डाला गया।
कुछ नहीं बाक़ी रहा यादें तलक ,
आग में सब कुछ जला डाला गया।
हम चराग़ों की मदद करते रहे ,
और उधर सूरज बुझा डाला गया।
धज्जियाँ बिखरी मिलीं ताबीर की ,
ख़्वाब को जड़ से हिला डाला गया।
हमको कुछ आया नहीं आख़िर तलक ,
हर सबक़ यूँ तो सिखा डाला गया।
रह गईं अब भी कई बातें मगर ,
याद था जो कुछ सुना डाला गया।
मनीष शुक्ला
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