जाने किस शै के तलबगार हुए जाते हैं।
खेल ही खेल में बीमार हुए जाते हैं।
क़ाफ़िला दर्द का चेहरे से गुज़र जाता है ,
ज़ब्त करते हैं तो इज़हार हुए जाते हैं।
कौन से ख़्वाब सजा बैठे हैं हम आँखों में ,
किन उम्मीदों के गिरफ़्तार हुए जाते हैं।
दिन गुज़रता है अबस रात गुज़र जाती है ,
रफ़्ता रफ़्ता यूँ ही बेकार हुए जाते हैं।
रास्ते जो कभी हमवार नज़र आते थे,
देखते देखते दुशवार हुए जाते हैं।
तौबा करना जो ज़रूरी है इबादत के लिए ,
तो ख़ता करके गुनहगार हुए जाते हैं।
जितना खुलते हैं उधर उतनी गिरह पड़ती है ,
हम कि हर रोज़ तरहदार हुए जाते हैं।
कोई घुटता चला जाता है मुसलसल हम में ,
अपने ऊपर ही गिरांबार हुए जाते हैं।
मनीष शुक्ला
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