अपने ज़ख़्मों की अज़ीयत में इज़ाफ़ा करते।
मर ही जाते जो दवाओं पे भरोसा करते।
हार कर थाम लिया हमने हवा का दामन ,
तेज़ आंधी में भला किस का सहारा करते।
दिन निकलते ही अंधेरों के हवाले होंगे ,
रात बीती है चराग़ों में उजाला करते।
तुमको मालूम नहीं है वो जुनूँ का आलम ,
तुमने देखा ही नहीं हमको तमन्ना करते।
होश इतना ही जो रहता तिरे दीवानों को ,
क्या कभी तर्क ए मुहब्बत का इरादा करते।
तुमको रुकना था तो रुकने ही पे राज़ी होते ,
तुमको चलना था तो चलने का इशारा करते।
वो तो तू है कि तिरी सिम्त बढ़े आते हैं ,
वरना हम वो हैं कि उठना न गवारा करते।
तुमको रुकना था तो रुकने ही पे राज़ी होते ,
तुमको चलना था तो चलने का इशारा करते।
वो तो तू है कि तिरी सिम्त बढ़े आते हैं ,
वरना हम वो हैं कि उठना न गवारा करते।
मनीष शुक्ला
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