उसकी महफ़िल में जाके लौट आए ।
हम भी चेहरा दिखा के लौट आए ।
तिलमिलाने की बात थी जिस पर ,
हम फ़क़त मुस्करा के लौट आए ।
हम गए थे बुतों की बस्ती में ,
ख़ुद को इक बुत बना के लौट आए।
कुछ भी रखा नहीं बयाबां में ,
हम भी कुछ दिन बिता के लौट आए।
क़िस्सागोई का ही ज़माना था ,
हम भी क़िस्से सुना के लौट आए।
वो भी दामन बचा के गुज़रा था ,
हम भी नज़रें चुरा के लौट आए।
हम जो दुनिया बदलने निकले थे ,
सिर्फ़ फ़ितना उठा के लौट आए।
मनीष शुक्ला
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