Thursday, 9 June 2016


तुम  अपने  ख़्वाबों  के  पीछे  यार  मिरे  हैरान  बहुत   हो। 
इस काविश में हो सकता है आँखों का नुक़सान बहुत हो। 

पा  ए   वहशत   से  क्यूँ   सहरा  नाप  रहे  हो  उजलत   में ,
मुमकिन  है उस पार का मंज़र इस से भी वीरान बहुत हो। 

जिसकी    दानाई    के    चर्चे    गूँज    रहे   हैं    बस्ती    में ,
हो  सकता  है  वो  दाना  भी  हम  जैसा नादान  बहुत हो। 

शायद   उसको  खोने   में  ही  मुश्किल  आड़े  आती  हो ,
शायद  उसको  पा  लेना  ही  दुनिया में आसान बहुत हो। 

मुमकिन  है   असली   चीज़ें   वीराने   में ही   मिलती   हों ,
हो   सकता  है   बाज़ारों   में  मसनूई  सामान   बहुत  हो। 

जिन  बातों   का  यार  हमारे  बिलकुल  ज़िक्र नहीं  करते ,
उन  बातों  का  हो सकता है महफ़िल में ऐलान बहुत हो। 

जिसका  कोई  ध्यान  नहीं  हो  वो  मिल  जाता है  लेकिन ,
अक्सर वो ही खो जाता है जिस पल का इमकान बहुत हो। 
मनीष शुक्ला 





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