कुछ एहतमाम ए जाम ओ सुबू ही नहीं हुआ।
महफ़िल में इज़्न ए तर्क ए वज़ू ही नहीं हुआ।
सोलह सिंगार शब के यक़ीनन कमाल थे ,
लेकिन वो चाँद आज नमू ही नहीं हुआ।
बाक़ी तमाम रंग भी आँखों में भर गए ,
अश्कों का रंग सिर्फ़ लहू ही नहीं हुआ।
जब तार चुक गया तो रगें खींचने लगे ,
पर ज़िन्दगी का चाक रफ़ू ही नहीं हुआ।
इक बार दोस्ती में वो सदमे उठा लिए ,
फिर उसके बाद कोई अदू ही नहीं हुआ।
वैसे तो सारे रूप दिखाये हयात ने ,
लेकिन मिरे जहान में तू ही नहीं हुआ।
क़िस्मत का खेल हाथ में आया था आबजू ,
लेकिन मैं आज खुश्कगुलू ही नहीं हुआ।
मनीष शुक्ला
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