ज़मीं के हाथ यूँ अपना शिकंजा कस रहे थे,
सुतूँ सारे महल के रफ्ता रफ्ता धंस रहे थे,
उम्मीदें लम्हा लम्हा घुट के मरती जा रही
थीं,
अजब आसेब से आकर दिलों में बस
रहे थे,
शजर पर जह्र ने अब रंग दिखलाया है अपना,
रुतों के सांप यूँ तो मुद्दतों से
डस रहे थे,
मिरा सूरज मिरी आँखों के आगे बुझ रहा था,
मिरे साये मिरी बेचारगी
पर हंस रहे थे,
पड़े हैं वक़्त की चोटों से अब मिस्मार
होकर,
वही पत्थर जो अपने दौर में पारस रहे थे,
उजाड़ा किस तरह आंधी ने बेदर्दी से
देखो,
नगर ख़्वाबों के कितनी हसरतों से बस
रहे थे,
उड़ानों ने किया था इस क़दर मायूस
उनको,
थके हारे परिंदे जाल में खुद फँस रहे थे,
मनीष शुक्ल