Thursday 28 June 2018



गुज़ारी उम्र पियाला ओ  मय बनाने में।
फिर आग हमने लगा दी शराबख़ाने में.

ख़ुद आपने आप को हम देख ही नहीं पाए ,
हमारा ध्यान लगा ही रहा ज़माने में।

सब अपने आप को ढूँढा किये बहर सूरत ,
हम अपना आप सुनाते रहे फ़साने में।

तुम्हारी  याद सताएगी उम्र भर हमको ,
ज़रा सा वक़्त लगेगा तुम्हें भुलाने में।

यूँ एक पल में ज़मींदोज़ मत करो हमको ,
हज़ारों  साल  लगे हैं  हमें  बसाने  में।

ख़ुद अपने आप के कितना क़रीब आ पहुंचे ,
हम अपने आप को तेरे क़रीब लाने में।

हमारी तिशनादहानी  का कारनामा है ,
लगी हैं ओस की बूँदें नदी बनाने में।

बहुत तवील था क़िस्सा गुनाह ए अव्वल का ,
सो एक उम्र लगा दी तुम्हें सुनाने में।

हमारी बात में कुछ दिलफ़िगार शिकवे हैं,
वगरना उज्र नहीं था तुम्हें बताने में।

सजाने।  बिताने। बताने




इतना ज़ियादा ज़िंदा रहना ठीक है क्या।
हरदम यूँ ताबिन्दा रहना ठीक है क्या।

जो   होता  है   होते   रहने  देते  हो ,
क़िस्मत का कारिंदा रहना ठीक है क्या।

क्यूँ बेकार में दर्ज किया अपना क़िस्सा ,
दुनिया में आईन्दा रहना ठीक है क्या।

कितने सारे जंगल रहते हैं हम में ,
बस्ती का बाशिंदा रहना ठीक है क्या

हम मिटटी के पुतले फ़ानी  होते हैं ,
हम सब का पाईन्दा  रहना ठीक है क्या।

हर्फ़ ओ मआनी मिल कर शोर मचाते हैं ,
लफ़्ज़ों का साज़िन्दा रहना ठीक है क्या।

जो कुछ कर सकते थे कर के देखा था ,
हार के यूँ शर्मिंदा रहना ठीक है क्या।

फिर सब मस्ती का कारन भी पूछेंगे ,
हर लम्हा रक़्सिंदा रहना ठीक है क्या।

चाँद सितारे फीके लगने लगते हैं ,
इस दर्जा रख़शंदा रहना ठीक है क्या।
 


Wednesday 27 June 2018



कैसा हंगाम उठाया था कभी।
ख़ुद को जी जान से चाहा था कभी।

ख़ामुशी चीख उठी थी डरकर ,
हमने वो शोर मचाया था कभी।

हम भी हंस हंस के मिले थे सब से ,
हमने भी सोग मनाया था कभी।

वो ही मालिक है हमारा देखो ,
जिसको मेहमान बनाया  कभी।

हमको आता है बिछड़ने का हुनर,
हमने भी साथ निभाया था कभी।

हमने हर बात बता दी सबको ,
हमने हर दाग़ छुपाया था कभी। 


तुझसे मिलने का इरादा तो नहीं करते हैं।
फिर भी मिलने पे किनारा तो नहीं करते हैं।

तुझसे मिलने तिरी महफ़िल में चले आते हैं ,
तुझसे उल्फ़त का तक़ाज़ा तो नहीं करते हैं।

सच बता यार कि हम तेरा सहारा बनकर ,
तेरी लग़ज़िश में इज़ाफ़ा तो नहीं करते हैं।

हम को तस्लीम किया जाता है मजबूरी में ,
हमको सब लोग गवारा तो नहीं करते हैं।

बस तिरा नाम लिया करते हैं दिल ही दिल में ,
तुझको हर वक़्त पुकारा तो नहीं करते हैं।

कुछ तो कहते हैं चमक कर ये सितारे हमसे ,
हमसे मिलने का इशारा तो नहीं करते हैं।

ख़ुद से  हर बात छुपाते  तो नहीं हैं फिर भी ,
ख़ुद को  हर बात बताया तो नहीं करते हैं।





तिरे होंठों में अपनी तिश्नगी बोते रहे पैहम।
तिरे ज़रिये हम अपने आप के होते रहे पैहम।

तुझे पाना भी इस दर्जा फ़रहत आमेज़ है हमदम ,
तुझे पाकर भी हर दफ़आ तुझे खोते रहे पैहम।

हमें कोई उठाए फिर रहा था अपनी बाँहों में,
हम अपने आप को बेकार ही ढोते रहे पैहम।

दुआ देती रही दुनिया हमें सुर्ख़ाब होने की ,
हम अपने ही लहू में तर ब तर होते रहे पैहम।

हमें बाँहों में लेके प्यार से चूमा नहीं जब तक ,
लिपटकर ज़िन्दगी से तब तलक रोते रहे पैहम।

यक़ीं मनो वो कल शब् ख़्वाब में ख़ुद चल के आया था ,
मगर ऐसा हुआ हम रात भर सोते रहे पैहम।






तेरे ज़ख़्मों को इंदेमाल करें।
आ तबीयत तिरी बहाल करें।

एक मुद्दत के बाद देखा है ,
तुझसे इक तल्ख़  सा सवाल करें।

जिसको खोने का शरफ़ हासिल है ,
उसको  खोने का क्या मलाल करें।

मैं   उन्हें   बोलते  हुए  देखूं ,
वो  मिरा बोलना  मुहाल करें।

कौन संजीदगी से सुनता है ,
किस भरोसे पे अर्ज़ ए हाल करें।

बारहा तुझको याद आ आकर ,
तेरी ख़ल्वत में इख़्तेलाल करें।

जी में आता है एक दिन ख़ुद को ,
अपने हाथों से पायमाल करें।




वक़्त ए रुख़सत हिसाब कर देगी।
ज़िन्दगी लाजवाब कर  देगी।

जोड़ती जा रही है बाब मिरे ,
तू तो मुझको निसाब कर देगी।

कोई गोशा तलाशना होगा ,
वरना दुनिया ख़राब कर देगी।

ये तिरी ख़्वाब परस्ती इक दिन ,
हर हक़ीक़त सराब कर देगी।

गर कोई उसकी आरज़ू पूछे ,
वो मिरा इन्तेख़ाब कर देगी।

ये कहानी है पिछले जन्मों की ,
पल में कैसे ख़िताब कर देगी।

ये जो ग़मसाज़ सी तबीयत है ,
तुझको महव ए सराब कर देगी।




जब तिरी दास्ताँ सुनाई दी।
तब हमें रौशनी दिखाई दी।

हमने जब भी उदासियाँ लिखीं ,
तेरी पलकों ने रौशनाई  दी।

ख़्वाब आँखों में रख लिए तेरे ,
हमने नींदों को मुंह दिखाई दी।

वार जी जान से किया उसने ,
हमने अग़यार को बधाई दी।

दिन में कुछ भी नज़र नहीं आया ,
मेरी आँखों ने रतजगाई दी।

उसका चेहरा दिखा दिया उसको ,
हमने तरक़ीब से सफ़ाई दी।

एक तो दाम में फंसे उस पर ,
हमने सय्याद को बंधाई दी।





दर्द  बरबाद नहीं करते हैं।
ज़ख़्म फ़रियाद नहीं करते हैं।

जो भी होता है हुआ करता है ,
ख़ुद को नाशाद नहीं करते हैं।

अच्छा लगता है मुक़य्यद रहना ,
खुद को आज़ाद नहीं करते हैं।

हम को कहनी है कहानी दिल की ,
आप इरशाद नहीं करते हैं।

उसको भूले तो नहीं हैं लेकिन,
अब उसे याद नहीं करते हैं।

वो ज़रुरत को समझते हैं मगर ,
कोई इमदाद नहीं करते हैं।

चाहते तो हैं तराशें परबत ,
खुद को फ़रहाद नहीं करते हैं।

दश्त को पार किया जाता है ,
दश्त आबाद नहीं करते हैं।

छोड़ देते हैं कहानी को 'मनीष ',
ख़त्म रूदाद नहीं करते हैं।





ख़ुद को सारी  रात जलाया जाता है।
तब सूरज को मुंह दिखलाया जाता है।

ख़्वाब को सच्चा मान के जीना ठीक नहीं ,
ख़्वाबों से तो जी बहलाया जाता है।

फिर ताउम्र उसी का रहना पड़ता है,
कुछ दिन तक जिसका कहलाया जाता है।

उसकी रेशम रेशम नज़रों से पूछो ,
ज़ख़्मों को कैसे सहलाया जाता है।

उसकी तपती साँसों को मालूम है ये ,
कैसे हर लोहा पिघलाया जाता है।

मेरे बारे में इतना मत सोचा कर  ,
फूल सा ये चेहरा कुम्हलाया जाता है।

दीवानों पर तंज़ नहीं करते लोगों।,
दीवानों को होश में लाया जाता है।








शेर के पैकर में ढल जाए ग़ुबार।
काश अंदर से निकल जाए ग़ुबार।

बारिशें आने को हैं अच्छा है ये ,
वक़्त के रहते संभल जाए ग़ुबार।

फिर न मैं उसकी तरफ़ बढ़ने लगूं ,
चाल फिर कोई न चल जाए ग़ुबार।

हो भी सकता है भरम नज़रों का हो ,
हाथ लगते ही पिघल जाए ग़ुबार।

या हवा में ही उड़ा डाले  मुझे ,
या तो मिटटी में बदल जाए ग़ुबार।

रात दिन नज़रों में रहता है मिरी ,
मेरी आँखों में न पल जाए ग़ुबार।

हट नहीं सकता है तो ऐसा करे ,
मुझको चुपके से निगल जाए ग़ुबार।





दर्द का कारोबार मुअत्तल हो जाता।
काश मिरा एहसास मुकफ़्फ़ल हो जाता।

सीने में इक तीर मुहल्लल हो जाता ,
दौर ए जुनूं कुछ और मुतव्वल हो जाता।

काश अचानक कोई मुझे भी छू लेता ,
खाक बदन इक बार तो संदल हो जाता।

काश मैं उसके इश्क़ से ग़ाफ़िल ही रहता ,
काश वो मेरे इश्क़ में पागल हो जाता।

तूने इक मिसरे को जितना वक़्त दिया ,
इतने में तो शेर मुकम्मल हो जाता।

काश तुम्हारे ख़्वाब हमारे हो जाते ,
एक अधूरा ख़्वाब मुशक्कल हो जाता।

महफ़िल में अहबाब नहीं आये वरना  ,
अच्छा ख़ासा जाम हलाहल हो जाता।






Tuesday 12 June 2018


کہانی  کو  کہاں  منظور  تھے  ہم
مگر  کردار  کیا  بھرپور  تھے ہم

وہاں  ہونا  پڑا  ہے   سر   بسجدہ
کشیدہ  سر  جہاں  مشہور تھے ہم

اب  آنکھیں ہی نہیں اٹھتیں ہماری
بہت  دن تک بہت مغرور تھے  ہم

وہ  قد قامت تمہارے ساتھ ہی  تھا
تمھارے  بعد  چکناچور  تھے  ہم

ہمیں اب زیر کرتے ہیں  اندھیرے
ابھی  تک  محفلوں کا نور تھے ہم

تمہاری  بات  لوگوں  نے اٹھا دی
تمہارے  نام  پر  مجبور  تھے  ہم

تمہارے  بعد  روشن  ہو  گئے ہیں
تمھارے  سامنے  بے نور تھے ہم

تمھیں  ہم شکریہ  بھی  کہ نہ پاے
تمھارے اس  قدر  مشکور تھے ہم

نئی  بستی   میں   آکر   کیا   بدلتے
پرانے   وقت  کا   دستور  تھے  ہم
منیش 


بخت کی نا فرمانی بھی تو ہو  سکتا ہے 
عزم  ترا  نادانی  بھی  تو  ہو  سکتا ہے 

گڈھتا  ہے  ہم   جیسے  مٹی   کے  پتلے 
اپنا خالق    فانی  بھی  تو  ہو  سکتا  ہے 

اتنا  پاکیزہ  رہنا   بھی   ٹھیک   ہے  کیا 
عشق  ذرا  انسانی  بھی  تو  ہو سکتا ہے 

مانا  جسم  کی  اپنی  حاجت ہے پھر بھی 
یہ  مسلہ  روحانی  بھی  تو  ہو  سکتا ہے 

کیا  کشکول  بدستی  سب   پر  لازم   ہے 
اک  شاعر  سلطانی  بھی  تو ہو سکتا ہے 

میں اس  کا دیوانہ بھی تو بن سکتی ہوں 
وہ  میری  دیوانی  بھی  تو  ہو  سکتا ہے 

اچھا  خاصا  لہجہ    بخشا  ہے  رب  نے 
یہ  لہجہ  لاثانی  بھی  تو  ہو  سکتا   ہے 

کیا   اتنے   دن   زندہ   رہنا   لازم    ہے 
مرنا   با  آسانی   بھی  تو  ہو  سکتا  ہے 

مجرم  پتھر   کا   ہو   جاۓ   ٹھیک  مگر 
شرم  سے پانی پانی بھی تو ہو سکتا ہے 

منیش 


وہی   منظر     دوبارہ    دیکھنا     ہے 
اسے سارے   کا    سارا  دیکھنا   ہے 

شبیہیں  چھین  لو آنکھوں  سے  ساری  
اسے    بے    استعارہ      دیکھنا    ہے 

وہ  جس  نے راکھ کر ڈالا  تھا   ہم   کو 
وہ  شبنم   کا     شرارہ    دیکھنا    ہے 

ابھی  تک سحر میں جس کے بندھے ہیں  
وہ   جادو   کا     نظارہ      دیکھنا    ہے 

ہماری      آخری     قیمت       لگا    دو 
 ہمیں   پورا     خسارہ      دیکھنا     ہے 

ہمیں     پروا      نہیں    موج     بلا کی 
فقط    اس   کا    اشارہ     دیکھنا   ہے 

کنارے    سے   بھنور  کو دیکھتے ہیں  
وہاں   جا    کے   کنارہ    دیکھنا    ہے 

منیش