Wednesday 27 June 2018



शेर के पैकर में ढल जाए ग़ुबार।
काश अंदर से निकल जाए ग़ुबार।

बारिशें आने को हैं अच्छा है ये ,
वक़्त के रहते संभल जाए ग़ुबार।

फिर न मैं उसकी तरफ़ बढ़ने लगूं ,
चाल फिर कोई न चल जाए ग़ुबार।

हो भी सकता है भरम नज़रों का हो ,
हाथ लगते ही पिघल जाए ग़ुबार।

या हवा में ही उड़ा डाले  मुझे ,
या तो मिटटी में बदल जाए ग़ुबार।

रात दिन नज़रों में रहता है मिरी ,
मेरी आँखों में न पल जाए ग़ुबार।

हट नहीं सकता है तो ऐसा करे ,
मुझको चुपके से निगल जाए ग़ुबार।



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