शेर के पैकर में ढल जाए ग़ुबार।
काश अंदर से निकल जाए ग़ुबार।
बारिशें आने को हैं अच्छा है ये ,
वक़्त के रहते संभल जाए ग़ुबार।
फिर न मैं उसकी तरफ़ बढ़ने लगूं ,
चाल फिर कोई न चल जाए ग़ुबार।
हो भी सकता है भरम नज़रों का हो ,
हाथ लगते ही पिघल जाए ग़ुबार।
या हवा में ही उड़ा डाले मुझे ,
या तो मिटटी में बदल जाए ग़ुबार।
रात दिन नज़रों में रहता है मिरी ,
मेरी आँखों में न पल जाए ग़ुबार।
हट नहीं सकता है तो ऐसा करे ,
मुझको चुपके से निगल जाए ग़ुबार।
No comments:
Post a Comment