Wednesday 15 November 2017



हमसफ़र ऊब चुका है मुझसे। 
रास्ता  पूछ    रहा   है  मुझसे। 

एक  नाकाम   सी   शनासाई ,
बस  यही काम हुआ है मुझसे। 

क्यूँ   मुझे  देख  रहा   है   ऐसे ?
क्या तिरा  दर्द सिवा है मुझसे ?

क्यूँ   मिरे  तौर  आज़माता है ?
तेरा  किरदार जुदा   है मुझसे। 

तू क्यूँ ज़ाहिर पे ग़ौर करता है ,
तू तो अंदर से जुड़ा है मुझसे। 

मेरे  मरते  ही  क़यामत  होगी ,
मैं ही महशर हूँ ख़ुदा है मुझसे। 

तू  फ़रामोश  कर  ख़ता मेरी ,
तेरा दरजा तो बड़ा है  मुझसे। 

उसपे रह रह के प्यार आता था ,
वो यूँ रह रह के लड़ा है मुझसे। 

मेरी क़िस्मत है कि मैं हूँ पानी ,
आग  बेकार  ख़फ़ा  है  मुझसे। 
मनीष शुक्ला 





No comments:

Post a Comment