Tuesday 5 July 2011

तुम्हें  पाने  की  ख़्वाहिश   है  मगर  छूने  से डरते हैं
सुना  है ओस  के  क़तरे  बड़ी  जल्दी   बिखरते    है

तुम्हारी     याद  से   मन्सूब   अफ़सुर्दा    अंधेरों    मे
कई   मंज़र  चमकते   है   कई  साए     उभरते     है

वो कुछ रातें जो  तुमने चांदनी बनकर मुनव्वर कीं
उन्हीं  रातों  के  सदके  से किसी के दिन गुज़रते है

कभी तकते है मुस्तकबिल के मुबहम आस्मानों को
कभी  माज़ी  के  आशुफ़्ता  अंधेरों   मे  उतरते    हैं

कभी उकता के  उठते है  बगूला बन के हम ख़ुद मे
कभी  दिल   के   बयाबां   मे   गुलों के रंग  भरते  हैं 

बड़ी  जादू  भरी  होती  है अहल-ए--हिज्र की रातें
क़मर देता है मौज़ू और   सितारे   बात   करते हैं 

 हम अक्सर रूबरू रखकर तुम्हारी याद का दरपन
कभी   मायूस   होते   है,   कभी   बनते  संवरते हैं 

हमें   मालूम   है आख़िर   अँधेरा   छा ही    जाएगा
मगर  उम्मीद  मे बुझते   दिए   की  लौ   कतरते  हैं 

बड़ी काविश से  आते  हैं  हक़ीक़त   की चटानों पर
बड़ी मुश्किल  से ख़्वाबों  के तलातुम से  उबरते हैं 
                                     

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