तुम्हें पाने की ख़्वाहिश है मगर छूने से डरते हैं
सुना है ओस के क़तरे बड़ी जल्दी बिखरते है
तुम्हारी याद से मन्सूब अफ़सुर्दा अंधेरों मे
कई मंज़र चमकते है कई साए उभरते है
वो कुछ रातें जो तुमने चांदनी बनकर मुनव्वर कीं
उन्हीं रातों के सदके से किसी के दिन गुज़रते है
कभी तकते है मुस्तकबिल के मुबहम आस्मानों को
कभी माज़ी के आशुफ़्ता अंधेरों मे उतरते हैं
कभी उकता के उठते है बगूला बन के हम ख़ुद मे
कभी दिल के बयाबां मे गुलों के रंग भरते हैं
बड़ी जादू भरी होती है अहल-ए--हिज्र की रातें
क़मर देता है मौज़ू और सितारे बात करते हैं
हम अक्सर रूबरू रखकर तुम्हारी याद का दरपन
कभी मायूस होते है, कभी बनते संवरते हैं
हमें मालूम है आख़िर अँधेरा छा ही जाएगा
मगर उम्मीद मे बुझते दिए की लौ कतरते हैं
बड़ी काविश से आते हैं हक़ीक़त की चटानों पर
बड़ी मुश्किल से ख़्वाबों के तलातुम से उबरते हैं
nice
ReplyDeleteकोमल भावों की बेहतरीन प्रस्तुति!
ReplyDeletethanks,nimish and misraji
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