Wednesday 31 January 2018




सीने में  उम्मीद का  सूरज  और  आँखों  में  पानी   है। 

बदलेंगे  तस्वीर  ज़माने   की   ये   दिल  में  ठानी   है। 

हमने  इक ख़ुशहाल चमन का ख़्वाब सुनहरा देखा  है ,

हमको हर इक फूल की रंगत फिर वापस लौटानी है। 


साहिल से मुस्कुरा के तमाशा न देखिये,

हमने ये ख़स्ता नाव विरासत में पाई है।



बारिश के इंतज़ार में सदियां गुज़र गयीं ,

उट्ठो  ज़मीं को चीर के पानी निकाल लो। 


हर एक ज़र्रे के रुख़ पर निखार आने तक ,
उदास बाग़ के दिल को क़रार आने तक ,
चमन का फूल का रंगों का तब्सरा होगा ,
कुछ इंतज़ार तो करिये बहार आने तक 

शहर के अंधेरे को  इक चराग़ काफ़ी है,

सौ चराग़ जलते हैं  इक चराग़ जलने से।

ज़मीं के ख़ार चुनने से चमन में फूल आने तक। 
हमीं मिलते रहे हैं ख़ाक में पतझड़ के जाने तक। 
हमारी बाग़बानी पर वही उंगली उठाते हैं ,
कि जिनको बाग़ से मतलब रहा ख़ुश्बू चुराने तक।  

मेरे जुनूं का नतीजा ज़रूर निकलेगा।

इसी सियाह समंदर से नूर निकलेगा।


न हमसफ़र  न किसी  हमनशीं से निकलेगा।

हमारे पाओं  का  कांटा  हमीं  से  निकलेगा।


तमाम    राह     तुम्हें     बारहा     रुलाएंगे।
सफ़र  के  सारे    मक़ामात   याद    आएंगे।
ये जिनकी रौशनी तुमको अखर रही है अभी ,


यही     चराग़    तुम्हें    रास्ता     दिखाएंगे।

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