ख़्वाब का चेहरा पीला पड़ते देखा है।
इक ताबीर को सूली चढ़ते देखा है।
इक तस्वीर जो आईने में देखी थी,
उसका इक-इक नक़्श बिगड़ते देखा है।
सुब्ह से लेकर शाम तलक इन आंखों ने,
अपने ही साए को बढ़ते देखा है।
उससे हाल छुपाना तो है नामुमकिन,
हमने उसको आँखें पढ़ते देखा है।
अश्क रवां रखना ही अच्छा है वरना,
तालाबों का पानी सड़ते देखा है।
इक उम्मीद को हमने अक्सर ख़ल्वत में,
एक अधूरी मूरत गढ़ते देखा है।
दिल मे कोई है जिसको अक्सर हमने,
हर इल्ज़ाम हमीं पर मढ़ते देखा है।
मनीष शुक्ल
Pibloc URL par bloging me aane ka shukriya
ReplyDeletewelcome bloging.
Gajal behtreen hai.
क्या खूब अंदाजे बयाँ
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ReplyDeleteआदरणीय मनीष भईया सर्व प्रथम में आपका ब्लॉग जगत में
ReplyDeleteतहे दिल से स्वागत........ करता हूँ और उम्मीद करता हूँ की
आप यूँ ही हम सभी को अपनी उम्दा रचनाओ से नवाजते रहेंगे.....
आप से मुलाकात के बाद मेने आपको बोग
जगत में बहुत ढूंढा पर आप नदारद थे |
आप की वो गजल ...
आँखों देखी कहता हूँ कोई झूठ नहीं |
चोट लगा कर कहते हो की रूठ नहीं |
जहन में तारो ताज़ा है .....
अब में आपकी गजल पर आता हूँ .......
मतला ही जब इतना खूबशूरत बन पड़ा है तो गजल तो अच्छी होनी है....
ख़्वाब का चेहरा पीला पड़ते देखा है
इक ताबीर को सूली चढ़ते देखा है
और ये बेहद उम्दा शेर ...
उससे हाल छुपाना तो है नामुमकिन
हमने उसको आँखें पढ़ते देखा है
और ये भी
दिल मे कोई है जिसको अक्सर हमने
हर इल्ज़ाम हमीं पर मढ़ते देखा है
बहुत खूब ..........मन गए ....एक अनोखी मिठास है आपकी
लेखनी में
बधाइयाँ स्वीकारें...................!
bahut bahut shukria bhai p singh,mamnoon hoo'n
ReplyDeleteashok shukla sahab apko bahut dhanyawad ke aap ne nazar e inayat farmaee
ReplyDeleteshukria arvind ji
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