थक कर हुआ है चूर मुसाफ़िर का बदन भी .
और उसपे अँधेरा भी, इरादों की थकन भी .
आँखों से छलकता है, मिरे ग़म का समंदर ,
सब हाल बताती है मिरी तर्ज़ ए सुख़न भी .
उस सिम्त किये जाये कोई पर्दा मुसलसल ,
इस सिम्त अधूरी है अभी दिल की लगन भी .
जाती ही नहीं दिल से वो इक पीर पुरानी ,
मैं देख चुका करके कई बार जतन भी .
शब भर में कहीं डूब गए सारे सितारे ,
आई न मगर चाँद के माथे पे शिकन भी .
ले लेगा किसी दिन मुझे आग़ोश में सूरज,
मिट जायेगी इक रोज़ ये सीने की जलन भी .
कुछ देर मिरे पास रहो मुझको तराशो ,
पत्थर हूँ मगर चाहो तो बन जाऊं रतन भी .
मनीष शुक्ल
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