Monday 21 July 2014





तमाम   दर्द   को   चेहरे  पे   इक़्तेबास    किया।
कि इक हंसी ने हर इक ग़म को बेलिबास किया।

तुम्हारा  हौसला  रखने  को   हंस   दिए   वरना ,
तुम्हारी  बात  ने  हमको   सिवा  उदास   किया।

न  रास्ते  की   ख़बर  ही  रही  न   मंज़िल    की ,
सफ़र  के शौक़  ने किस दरजा बदहवास  किया।

जहां   से   उठ  के    चले   थे    जहाँनवर्दी    को ,
सफ़र  तमाम   उसी  दर  के  आस  पास  किया।

फ़क़त ख़ुशी ही से वाक़िफ़ थी नासमझ अब तक ,
नज़र को कितनी मशक़्क़त से ग़मशनास किया।

वो  जिसको  कह के  कोई  भूल भी  गया कबका ,
तमाम  उम्र  उस इक  बात  का  ही  पास  किया।

हर   एक    शै   की   ज़रुरत   पड़ी   कहानी    में ,
कभी  ख़ुशी   तो  कभी  ग़म  से इल्तेमास किया।
मनीष शुक्ला







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