कुछ बुजुर्गों से सुनी है दास्तान ए लखनऊ .
बा अदब नाज़ ओ अदा वो महविशान ए लखनऊ .
मुनफ़रिद लहजा बयां का, इक अजब सा बांकपन,
भीड़ में तन्हा दिखें हैं साहिबान ए लखनऊ .
सब की मंजिल है मुहब्बत सबका वादा है वफ़ा ,
अपनी धुन में जा रहे हैं रहरवान ए लखनऊ .
गूंजती रहती है हर सू इक सदा ए आफरीं ,
गोशे गोशे में बसे हैं आशिक़ान ए लखनऊ .
वहशतों के शोर ओ ग़ुल में किस क़दर बेख़ौफ़ हैं ,
अमन का परचम उठाये मुख्लिसान ए लखनऊ .
सद सलामत, सद सलामत ,सद सलामत, सालहा,
ये दुआएं मांगते हैं दिलबरान ए लखनऊ .
ज़िन्दगी के आशिक़ों की ये इबादतगाह है,
मिट न पायेगा कभी नाम ओ निशान ए लखनऊ .
मनीष शुक्ल
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