Thursday 9 February 2017

गर   इधर  चले   आते  तुम किसी  बहाने  से। 
हम   निजात   पा  जाते  दो  घड़ी  ज़माने  से। 

जब  कभी   अकेले   में  पास   आके   बैठी है ,
लग  के   ख़ूब   रोये  हैं  ज़िन्दगी के शाने से। 

सिर्फ़ अश्क देकर  ही  तुम  ख़रीद  सकते हो ,
हम  निकल  के  आए  हैं  दर्द  के ख़ज़ाने से। 

 शब् को शब्  बनाने  के  और  भी शराएत हैं ,
रात   हो  नहीं   जाती   चाँद   जगमगाने  से। 

दर्द  था  क़रीने    से  छुप   के  रो  लिए होते ,
क्या  मिला  भला  इसको  मुद्दआ  बनाने से। 

एक दिन  सितारों   से मिल के उन से पूछेंगे ,
ऊब   क्यूँ  नहीं   जाते रोज़  झिलमिलाने से। 

ये अलग कि आख़िर में हम ही जीत जाएंगे ,
फ़ाएदा   नहीं  लेकिन   बात  अब  बढ़ाने से। 

उम्र   भर  की  रिंदी  ने  बस यही सिखाया है ,
प्यास  और  बढ़ती  है  प्यास  को बुझाने से। 

दुःख तो है हंसीं मंज़र आँख से  हुआ ओझल ,
नींद  खुल  गयी लेकिन ख़्वाब टूट  जाने से। 
मनीष शुक्ला 

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