Tuesday 14 February 2017



कई   चेहरे   सलामत  हैं   कई  यादें  सलामत  हैं। 
अभी   टूटे   हुए  दिल की कई किरचें सलामत  हैं। 

 ख़यालों  की   लकीरें   क्यूँ  अधूरे ख़्वाब बुनती  हैं ?
 न   अब  ताबीर  बाक़ी है न वो आंखें  सलामत  हैं। 

   अभी  चस्पा   है   मेरे    ज़ेह्न   पे  सहरा का  सन्नाटा  ,
  अभी ख़्वाबों में जलती प्यास की चीख़ें सलामत हैं। 

  भला  तनहाई  में  सूना  शजर  किस  से  हंसे बोले ,
  न  अब  ताइर सलामत हैं न ही  शाख़ें सलामत हैं। 

  ये  है  बेहतर  हुदूद ए  वक़्त  के बाहर निकल जाएं ,
    यहाँ  अब  दिन  सलामत  हैं  न ही रातें सलामत हैं। 

    मुसलसल  हाफ़िज़े  पर  वक़्त की चोटें पड़ीं लेकिन ,
   तिरी  ख़ुशबू  सलामत  है  तिरी  बातें  सलामत  हैं। 

    अभी  इनकार  की  जुरअत दहकती है मिरे दिल में ,
    अभी  तक  जिस्म में कुछ ख़ून की बूँदें सलामत हैं। 
मनीष शुक्ला 

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