गए मौसम का डर बांधे हुए है
परिंदा अब भी पर बांधे हुए है
बुलाती हैं चमकती शाह राहें
मगर कच्ची डगर बांधे हुए है
मुहब्बत की कशिश भी क्या कशिश है
समंदर को क़मर बांधे हुए है
बिखर जाता कभी का मैं खला में
दुआओं का असर बांधे हुए है
चला जाऊं जुनूं के जंगलों में
ये रिश्तों का नगर बांधे हुए है
हक़ीक़त का पता कैसे चलेगा
नज़ारा ही नज़र बांधे हुए है
गए लम्हों की इक ज़ंजीर या रब
मिरे शाम ओ सहर बांधे हुए है
मनीष शुक्ल
No comments:
Post a Comment