Friday 30 September 2011

mehv e yaas qamar lagta hai

 महव  ए  यास  क़मर  लगता है.
 होगी   नहीं    सहर   लगता   है.,

क्यूँ   परवाज़  हुई   है   मुश्किल.
टूट    गए   हैं   पर    लगता   है.,

आदी   हूँ   मैं   इक  रहबर   का.
तन्हा   चलते    डर   लगता   है,.

उम्र    गई     है    चलते   चलते.
अब   रस्ता  ही   घर  लगता  है,.

तुम अखलाक़ को मिट्टी समझो.
हम  को    तो   ज़ेवर  लगता  है,.

पहले    आंसू   दो   मिट्टी   को.
उसके   बाद    शजर  लगता  है,.

जाने    कैसे   बिछड़   गए   हम.
लग  गई  यार  नज़र  लगता है,.
मनीष शुक्ल 



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