Monday 12 September 2011

faqeerana tabeeyat thi




फ़कीराना  तबीयत  थी बहुत बेबाक लहजा  था
कभी मुझमें भी हँसता खेलता इक शख्स रहता था

बगूले  ही  बगूले  हैं  मिरी   वीरान  आँखों  में
कभी इन रेगज़ारों में कोई दरिया  भी बहता था

तुझे  जब देखता हूँ तो ख़ुद अपनी याद आती है
मिरा  अंदाज़  हंसने का  कभी तेरे ही  जैसा था

कभी  परवाज़ पर मेरी  हज़ारों  दिल  धड़कते  थे
दुआ करता था कोई तो कोई ख़ुशबाश कहता था

कभी ऐसे ही  छाईं थीं गुलाबी बदलियाँ मुझ  पर
कभी फूलों की सुहबत से मिरा दामन भी महका था

मैं था जब कारवां के साथ तो गुलज़ार थी दुनिया
मगर तन्हा हुआ तो हर तरफ़ सहरा ही सहरा था

बस इतना याद है सोया था इक उम्मीद सी लेकर
लहू  से  भर  गयीं  आंखें न जाने ख़्वाब कैसा था
मनीष शुक्ल

2 comments:

  1. .

    बस इतना याद है सोया था इक उम्मीद सी लेकर.
    लहू से भर गयीं आंखें न जाने ख़्वाब कैसा था...

    Very appealing lines...

    your creations are awesome. It's really our fortune to have a poet like you among us.

    regards,

    .

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