तिरी रौशनी में नहाने लगे हैं.
मिरे लफ्ज़ अब जगमगाने लगे हैं,
मिरे रतजगों से परेशान होकर.
सितारे कहानी सुनाने लगे हैं,
ख़यालों की परवाज़ बढ़ने लगी है.
ख़लाओं से पैग़ाम आने लगे हैं,
क़मर ने ख़ुदा जाने क्या कह दिया है.
समंदर के लब थरथराने लगे हैं,
तिरा दर्द अब जाविदाँ हो चला है.
कि दिन रात हम मुस्कराने लगे हैं,
सफ़र ख़ाक में मिलने वाला है शायद.
मुसाफ़िर बगूले उड़ाने लगे हैं,
तमाशे की अब इन्तेहा हो रही है.
तमाशाई उठ उठ के जाने लगे हैं,
मनीष शुक्ल
तमाशाई उठ उठ के जाने लगे हैं.
ReplyDeleteईश्वर करें ऐसा ही हो !एक खूबसूरत रचना
डॉ अरविन्द मिश्र की बदौलत आपको पढ़ पाया !
ReplyDeleteलगता है एक सशक्त अभिव्यक्ति हिंदी ब्लॉग जगत को मिली है !
हार्दिक शुभकामनायें !
रचनाएँ पसंद आयीं...शुभकामना..
ReplyDeleteतिरा दर्द अब जाविदाँ हो चला है.
ReplyDeleteकि दिन रात हम मुस्कराने लगे हैं,
क्या बात ....!!
thanks arvind ji,satish ji,rangnath ji and harkeerat ji
ReplyDelete