काग़ज़ों पर मुफ़लिसी के मोर्चे सर हो गए
और कहने के लिए हालात बेहतर हो गए
प्यास की शिद्दत के मारों की अज़ीयत देखिये
ख़ुश्क आँखों में नदी के ख़्वाब पत्थर हो गए
ज़र्रा ज़र्रा खौफ़ में है, गोशा गोशा जल रहा
अब के मौसम के न जाने कैसे तेवर हो गए
सबके सब सुलझा रहे हैं आसमां की गुत्थियाँ
मसअले सारे ज़मीं के हाशिये पर हो गए
इक बगूला देर से नज़रों में है ठहरा हुआ
गुम कहाँ जाने वो सारे सब्ज़ मंज़र हो गए
फूल अब करने लगे हैं ख़ुदकुशी का फैसला
बाग़ के हालात देखो कितने अबतर हो गए
हमने तो पास ए अदब में बंदापरवर कह दिया
और वो समझे कि सच में बंदापरवर हों गए
मनीष शुक्ल
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