आख़िरी कोशिश भी कर के देखते।
फिर उसी दर से गुज़र के देखते।
गुफ़्तगू का कोई तो मिलता सिरा,
फिर उसे नाराज़ कर के देखते।
काश जुड़ जाता वो टूटा आईना,
हम भी कुछ दिन बन संवर के देखते।
रहगुज़र ही को ठिकाना कर लिया,
कब तलक हम ख़्वाब घर के देखते।
काश मिल जाता कहीं साहिल कोई,
हम भी कश्ती से उतर के देखते।
हो गया तारी संवरने का नशा,
वरना ख़्वाहिश थी बिखर के देखते।
दर्द ही गर हासिल ए हस्ती है तो,
दर्द की हद से गुज़र के देखते।
मनीष शुक्ल
भाई मनीष शुक्ल जी बहुत प्यारी सी गज़ल है डॉ० अरविन्द मिश्र जी ने आपकी बहुत तारीफ़ किया था विगत दिनों उच्च न्यायालय में मुलाकात के दौरान |आभार
ReplyDeletebahut bahut shukria jaikrishn ji
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