इक अंधी दौड़ थी उकता गया था
मैं ख़ुद ही सफ़ से बाहर आ गया था
फ़क़त अब रेत की चादर बिछी है
सुना है इस तरफ़ दरिया गया था
न दिल बाज़ार में उसका लगा फिर
जिसे घर का पता याद आ गया था
उसी ने राह दिखलाई जहाँ को
जो अपनी राह पर तन्हा गया था
उसी सर की क़यादत में है दुनिया,
कभी नेज़े पे जो रक्खा गया था
कोई तस्वीर अश्कों से बनाकर
फ़सील ए शहर पे चिपका गया था
समझ आख़िर में आया वाहिमा था
जो कुछ अब तक सुना समझा गया था,
मनीष शुक्ल
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ReplyDeleteउसी ने राह दिखलाई जहाँ को.
जो अपनी राह पर तन्हा गया था,
उसी सर की क़यादत में है दुनिया.
कभी नेज़े पे जो रक्खा गया थ.....
Outstanding creation !
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bahut bahut shukria zeal ji
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