ख़ुद को इतना ख्वार न कर
समझौता हर बार न कर
ग़म का कारोबार न कर
जज़्बों को बेकार न कर
अपनों की रुसवाई है
ख़ुद को यूँ अख़बार न कर
रिश्तों में भी सूद ओ ज़ियाँ
घर को तू बाज़ार न कर
ख़ुदगर्ज़ी आ जाएगी
ख़ुद से इतना प्यार न कर
तेरे दिल में ख़दशा है
अब तू दरिया पार न कर
सर पर भी गिर सकता है
हर बुत को मिस्मार न कर
लफ़्ज़ों का मफ़हूम समझ
लहजे पर तकरार न कर
मनीष शुक्ल
मनीष भैया .....
ReplyDeleteएक खुबसूरत गजल का नगीना
ग़म का कारोबार न कर.
जज़्बों को बेकार न कर,
बधाई स्वीकारें .......
dhanyawad psingh ji
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