रात के दर्द का मारा निकला।
चाँद भी पारा पारा निकला।
आप समंदर की कहते हैं,
दरिया तक तो खारा निकला।
ऊबा दुनिया की हर शै से,
दिल आख़िर बंजारा निकला।
आग न दरबारों तक पहुंची,
मुख़बिर एक शरारा निकला।
सूरज के आने तक चमका,
बाग़ी एक सितारा निकला।
पलटे दिल के सफ़हे सारे,
सब पर नाम तुम्हारा निकला।
जो समझा था ख़ुद को नाज़िर,
वो भी एक नज़ारा निकला।
मनीष शुक्ल
आदरणीय भाई मनीष शुक्ल जी सादर अभिवादन |अच्छी गज़ल बधाई और शुभकामनाएं |
ReplyDeletedhanyawad jaikrishn ji
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