रफ़्ता रफ़्ता रंग बिखरते जाते हैं.
तस्वीरों के दाग़ उभरते जाते हैं,
वक़्त की साज़िश गहरी होती जाती है.
दीवारों के रंग उतरते जाते हैं,
बन कर फिर आसेब भटकने लगते हैं.
दिल के वो अहसास जो मरते जाते हैं,
यादों में इक टीस बनी ही रहती है.
धीरे धीरे ज़ख्म तो भरते जाते हैं,
आब ओ दाना और घरौंदों के सपने.
पंछी की परवाज़ कतरते जाते हैं,
आख़िर तक इंसान अकेला रहता है.
यूँ ही माह ओ साल गुज़रते जाते हैं,
ज़ख्मों में हर रोज़ इज़ाफ़ा होता है.
ग़ज़लों के मफ़हूम संवरते जाते हैं,मनीष शुक्ल
तस्वीरों के दाग़ उभरते जाते हैं,
वक़्त की साज़िश गहरी होती जाती है.
दीवारों के रंग उतरते जाते हैं,
बन कर फिर आसेब भटकने लगते हैं.
दिल के वो अहसास जो मरते जाते हैं,
यादों में इक टीस बनी ही रहती है.
धीरे धीरे ज़ख्म तो भरते जाते हैं,
आब ओ दाना और घरौंदों के सपने.
पंछी की परवाज़ कतरते जाते हैं,
आख़िर तक इंसान अकेला रहता है.
यूँ ही माह ओ साल गुज़रते जाते हैं,
ज़ख्मों में हर रोज़ इज़ाफ़ा होता है.
ग़ज़लों के मफ़हूम संवरते जाते हैं,मनीष शुक्ल
मनीष भैया
ReplyDeleteसादर प्रणाम ...
बहुत खूब ये ग़ज़ल भी बेहतरीन
बन कर फिर आसेब भटकने लगते हैं.
दिल के वो अहसास जो मरते जाते हैं,
लाजबाब शेर
बधाई स्वीकारें .........
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ReplyDeleteबन कर फिर आसेब भटकने लगते हैं.
दिल के वो अहसास जो मरते जाते हैं, ...
hmm...mesmerizing lines...
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thanks psingh ji and zeal ji
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