Thursday 19 May 2016





तुम्हारी  दास्तानों   के  बहाने   लिख   रहे  हैं   हम।
हिसार   ए   ज़ात के तारीक ख़ाने लिख रहे हैं  हम।

  अभी तक लिख रहे थे सिर्फ़ ज़ख्मों का पता लेकिन ,
अब   अपने दर्द  के सारे ठिकाने  लिख रहे  हैं  हम।

हमारे   हाल   पर   कोई   तरस खाए  तो क्या खाए ,
हुजूम    ए  यास  में  बैठे  तराने  लिख  रहे  हैं   हम।

हमें ख़्वाबों की  दुनिया  तो  मयस्सर  हो  नहीं  पाई ,
मगर ख़्वाबों की दुनिया पर फ़साने लिख रहे हैं हम।

ग़ज़ल कहने की कोशिश कर रहे हैं धूप में जलकर ,
नई  नस्लों  की  ख़ातिर  शामियाने लिख रहे हैं हम।

चलो  फिर  ज़िन्दगी  में  इक नया किरदार ले आएं ,
कई  दिन  से  वही  क़िस्से  पुराने  लिख रहे  हैं हम।

हक़ीक़त  तो  हमें  उजड़े  मनाज़िर  ही  दिखाती है ,
मगर   सपने  न  जाने  क्यों  सुहाने लिख रहे हैं हम।

हमें  संजीदगी  से  दर्ज  करना  है  हर  इक   लम्हा ,
किताब   ए   वक़्त  में अपने ज़माने लिख रहे हैं हम।

मनीष शुक्ला 

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