Thursday 26 May 2016




कभी ग़म कभी शादमानी का शिकवा। 
सभी  के  लबों पर कहानी का शिकवा। 

कभी  है मआनी के ग़ुल से गिला और 
कभी लफ़्ज़ की बेज़ुबानी का शिकवा। 

सफ़र  ही   से  बेज़ार  थी  ये तबीअत ,
भला  क्या करें नातवानी का शिकवा। 

किनारे   पे  हम  रेत   से  बदगुमाँ  थे ,
समंदर  में है  गहरे पानी का शिकवा। 

 शरारों   की  तहरीर  देकर   हमें   अब ,
 वो करते  हैं शोलाबयानी का  शिकवा। 

 नहीं   ज़ेब   सहरानवर्दों   को  हरगिज़ ,
 बरहनासरी  लामकानी  का    शिकवा। 

मनीष शुक्ला 


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