Friday 10 June 2016





अपने  ज़ख़्मों  की  अज़ीयत में  इज़ाफ़ा  करते। 
मर  ही   जाते  जो  दवाओं   पे  भरोसा   करते। 

हार  कर   थाम  लिया   हमने  हवा  का  दामन ,
तेज़  आंधी  में  भला  किस  का  सहारा  करते। 

दिन   निकलते    ही   अंधेरों   के   हवाले   होंगे ,
रात   बीती     है   चराग़ों    में    उजाला   करते। 

तुमको   मालूम  नहीं    है   वो  जुनूँ  का  आलम ,
तुमने   देखा    ही   नहीं   हमको   तमन्ना  करते। 

होश   इतना   ही   जो  रहता   तिरे  दीवानों  को ,
क्या   कभी  तर्क   ए  मुहब्बत  का  इरादा करते। 

तुमको रुकना था तो रुकने ही पे राज़ी होते ,
तुमको चलना था तो चलने का इशारा करते। 

वो तो तू है कि तिरी सिम्त बढ़े आते हैं ,
वरना हम वो हैं कि  उठना न गवारा करते। 


मनीष शुक्ला 

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