Thursday 9 June 2016





सुख़न  बीमार  होता  जा  रहा  है। 
 लबों  पर बार  होता   जा  रहा   है। 

 कभी  जो  राहत ए जां मश्ग़ला था ,
वो  अब   आज़ार होता जा रहा है। 

 समझ  में  आ  गया  चारागरों  की ,
मरज़   बेकार  होता  जा  रहा   है। 

चुभा  है  पाओं में काँटा ख़िरद का ,
 जुनूँ    बेदार   होता   जा   रहा   है। 

  तमाशे    सा    तमाशा   है   हमारा ,
 सर  ए   बाज़ार  होता  जा  रहा है। 

  पुराना   ज़ख़्म  भरने के जतन  में ,
  नया    तैयार  होता   जा  रहा   है। 

  कभी जिस पर अक़ीदा था हमारा ,
    वो  बुत  मिस्मार होता  जा रहा है। 
मनीष शुक्ला 

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