Wednesday 8 June 2016




बनी   है  दहशतों   की  इक अँधेरी  झील  मुझमें। 
तुम्हारे    ख़ौफ़    सारे   हो  गए   तहलील  मुझमें। 

मैं  करता   ही  रहा  यकजा  तमन्ना के अनासिर ,
हज़ारों     ख़्वाब  होते  ही  गए  तशकील   मुझमें। 

इरादे    तो  दिल  ए  नादान  करता था मुसलसल ,
अगरचे     हो  नहीं  पाया  कोई  तकमील   मुझमें। 

सियाही   शाम   की   लेकर  वो   उतरा ख़ल्वतों में ,
फिर उसने नक़्श कर दी रात की तफ़सील मुझमें। 

मिरे    बारे   में   इतना    ग़ौर   फ़रमाने   लगे   हो ,
कहीं   तुम   हो   न   जाओ  हू ब हू तब्दील मुझमें। 

ज़माना   तो    मिरे   अंदर   कुशादा   हो  रहा   है ,
मुसलसल  हो  रहा हूँ मैं  मगर  तक़लील   मुझमें। 

मुझे  अब  रौशनी  के  साथ   ही   रहना   पड़ेगा ,
जला  कर रख गया वो प्यार की क़न्दील मुझमें। 
मनीष शुक्ला  

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